‘ चाह मेँ ही राह ‘
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थीं हवाएँ सर्द सर-सर बह रहीं,
क्यों कुहासा सबको था, धुँधला गया।
जम चुका था रुधिर, नाड़ी तन्त्र मेँ,
एक गरमाहट को था, तरसा गया।।
प्रस्फुटित होते ही, अँकुर प्यार का,
कटुवचन की, धूप से, कुम्हला गया।
कहके अपना ही, मिला जो उम्र भर,
भरम बन, रिश्तों को क्यूँ झुठला गया..!
प्रखर, प्राची, प्राप्त ओजस, सूर्य का,
रश्मि-रथ बन, रौशनी बिखरा गया।
“चाह मेँ ही राह” बसती मनुज की,
अहा, पथ “आशा” का, फिर दिखला गया..!
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