कन्यादान क्यों और किसलिए [भाग८]

आप कहते हो मेरे पापा,
यह रस्म बहुत पुराना है।
मैंने ही नहीं सदियों से
लोगों ने इसको माना है।
सतयुग में भी जनक जी ने
सीता का कन्यादान किया था।
देकर राम के हाथों में हाथ,
अपना पुण्य धाम किया था।
मैं पूँछती हूँ, मेरे पापा!
क्या सीता ने सुख जाना।
क्यों जीवन भर वन-वन भटकी,
पर कहती रही मैके न जाना।
किस अधिकार से जाती पापा?
जहाँ से दे दिया गया उनको दान,
दान देकर उनको पिता ने,
क्या रखा उनका कोई मान?
यह रस्म निभाने मे पापा
क्या नही हुआ उनका अपमान।
जिन्हें मान रखना था उनका
उन्होने ही दे दिया उनको दान।
मेरा मानना है, पापा !
जब सीता जी ने मैके
जाने का सोचा होगा,
यह दान की रस्म ने ही,
उनको जाने से पहले टोका होगा।
किस अधिकार से तुम जाओगे,
यह कहकर रोका होगा।
रहा सवाल जनक जी के
पुण्य धाम का,
मै पूँछती मेरे पापा!
क्या कोई पिता बेटी को
कष्ट मे देखकर सुखी रह सकता है?
क्या वह कभी खुश रह सकता है?
काश पापा जनक जी ने
सीता का कन्यादान न किया होता।
सीता जी को अपनी अन्दर की शक्ति से,
जनक जी ने परिचय कराया होता।
फिर कोई रावण उनको कभी,
हरने की हिम्मत न कर पाता।
और छल से हर भी लिया तो
रावण को मारने के लिए
राम की जरूरत न पड़ता ।
फिर देखते आप ,पापा!
रावण को मारने के लिए
राम नही सीता ही काफी होती।
और यों इस जग के लिए सीता
अबला का रूप न होती।
~अनामिका