*और ऊपर उठती गयी…….मेरी माँ*
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जैसे, जैसे मैं
पढ़ती गयी
मेरी आँखें नम
उसकी चमकती गयीं |
उसकी एक, एक ख़ूबी
जो मेरी आँखों में रह गयी,
एक, एक लम्हा जो
उसने हमारे नाम कर दिया,
वो हर एक पल उसका
जो हमारी ख़ुशियों का दाम हुआ|
संस्कारों की पोटली जो हर क्षण
थमाती रही हमें,
शब्दों में कैसे समाते वो
फिर भी उकेरी उसकी तस्वीर मैंने
कुछ आड़ी, कुछ तिरछी रेखाएं
कुछ अनगढ़ शब्दों का पहना के जामा
चाँद-सी थाली में सजा
तारों के संग जब परोसा उसे
बिखर, बिखर गयी मैं
निखर, निखर गयी वो,
झुरियाँ निस्तेज हो गयीं |
अश्रुपूरित नयन, कंपकंपाते होठ
मैं पढ़ती गयी, पढ़ती गयी और
उसके उन्नत ललाट पर
उमड़ती एक, एक किरण
बीते समय की थकावट को कम कर,
उसे रूई-सा हल्का करती गयी
भीगी आँखों के कोरों से जब-जब देखा उसे
उसकी मुस्कराहट उम्र उसकी कम करती गयी|
हाँ , मेरी माँ अपने बारे में लिखे
मेरे शब्दों को सुन निखरती गयी,
वो मेरी नज़रों में
और ऊपर, और ऊपर उठती गयी|