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23 Jul 2016 · 1 min read

वो मेरी हस्ती मिटाने को चला

वो मेरी हस्ती मिटाने को चला
फूंक से पर्वत उड़ाने को चला

यूँ नहीं था ख़ास मक़सद चलने का
सिर्फ अपनी ज़िद निभाने को चला

पैरहन उजला पहनकर, देखिए
दाग़ मुझपर वो लगाने को चला

आसमां छूने की ख़्वाहिश में कहीं
वो जमीं अपनी गँवाने को चला

झूठ के साये में रहता है मगर
साँच का परचम उठाने को चला

माँगकर चिड़ियों से छोटे पंख वो
आसमां पर हक़ जताने को चला

कोई समझाए कहे ‘माही’ उसे
बेवज़ह झगड़े बढ़ाने को चला

माही / जयपुर

2 Comments · 886 Views
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