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2 Sep 2018 · 1 min read

कविता

“ए ,मन कहीं ले चल”
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किया उर घोंप कर छलनी मनुज ने मजहबी खंजर,
बहा कर खून की नदियाँ हँसे अब पूर्ण कर मंजर।

परिंदा बन उड़ूँ मैं आज निश्छल मन कहीं ले चल,
हवाओं से करूँ बातें भुला मतभेद तू ले चल।।

सियासी दौर से ऊपर निकल कर आसमाँ छू लूँ,
मिटा कर बैर अपनों से जहाँ की नफ़रतें भू लूँ।

व्यथा के धुंध तज दूँ आज बादल हर्ष का बन कर,
रचाऊँ प्रीत की लाली हथेली भोर की बन कर।।

सजाए स्वप्न सतरंगी चुनर ओढूँ सितारों की,
चुरा कर रूप चंदा का बनूँ चितवन बहारों की।

लगा कर लेप चंदन का जलन शीतल पवन कर दूँ,
झुला कर नेह का झूला सहज समता सुमन भर दूँ।

डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
महमूरगंज, वाराणसी ।
संपादिका-साहित्य धरोहर

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