मुक्तक
शाम का वक़्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है?
तू थके-माँदे परिंदों को उड़ाता क्यों है?
स्वाद कैसा है पसीने का, ये मज़दूर से पूछ?
छाँव में बैठ के अंदाज़ा लगाता क्यों है।
शाम का वक़्त है शाख़ों को हिलाता क्यों है?
तू थके-माँदे परिंदों को उड़ाता क्यों है?
स्वाद कैसा है पसीने का, ये मज़दूर से पूछ?
छाँव में बैठ के अंदाज़ा लगाता क्यों है।