### मुक्तक ###
कुछ मुक्तक —-
(1)
भले आगाज़ ऐसा है, मगर अंज़ाम अच्छा हो |
जो मिले चार धुरन्धर तो कुछ काम अच्छा हो ||
हर बिगड़ी वो बना दें, सब मुश्किलें असां हों,,
सब तारीफ़ करें उसका वो सरेआम अच्छा हो ||
(2)
हर कोई घबरा जाता है इस स्याह रंग से |
पर देता है लगा चार चाँद लग के अंग से ||
बिन काजल सिंगार अधूरा लगे नारी का,
जैसे होती अधूरी नारी बिन पुरूष संग से ||
(3)
बारूद की ढेर पर बैठ ना देख सपना स्वर्ग का |
है जो दिलो दमाग में ना इलाज है इस मर्ज का |
सब नेस्तानबूद हो जाएगा यही हाल रहा अगर,
कैसे बचेगी ये नस्ल क्या होगा इंसानी फर्ज का
(4)
कर्म बिन कुछ यहाँ मिला कब है |
ईश बिन कुछ यहाँ हिला कब है ||
खेल सब काम और किस्मत के,,
फ़र्ज़ से फिर हमें गिला कब है ||
(5)
एक कबूतर एक कबूतरी,,
खड़े एक ही छतरी के नीचे !!
कुछ तो गड़बड़ झाला है,,
बातें करते आँखें मिंचे-मिंचे !!
(6)
कभी था धरा पर मेरा महत्त्व !
अब समाप्ति पर है जल-तत्व !
आज धूमिल हो चुकी हूँ मैं,,
अब संकट में है मेरा अस्तित्व !
(7)
सनम आओ मेरी बाँहों में धरा कुछ भी नहीं ।।
इन निगाहों को तेरे बिन आसरा कुछ भी नहीं ।।
अब मिरी साँसों को थोड़ा चैन तो दे दो अभी ,,
तुम मिरी बस मैं तेरा हूँ माजरा कुछ भी नहीं ।।
(8)
गंदला जल लोग पीने को हैं बेबस औ लाचार !!
विषाक्त जल पी-पीकर ऐसे होंगे सारे बीमार !!
फिर ऐसा दिन आएगा, जल की होगी कोताही,,
जल पिए बिन प्राणी विहिन होगा सारा संसार !!
(9)
दिखती नहीं हवा, दिखता नहीं उजाला !!
मगर ये हवा, ये उजाले ने हमें हैं पाला !!
दिखता तो प्राण वायु भी नहीं कहीं पर,,
मगर प्राण बिना ये जग है खाली प्याला !!
(10)
काम कर-करके तो मजदूर भी थकते नहीं !!
ये किसान भी खट-खटके कभी हारते नहीं !!
धनी, अमीर, पैसे वाले तो इन्हें ही होना था,,
मगर निठल्ले लोग क्यूँ धन कुबेर होते यहीं !!
(11)
गाँवों से छुटता जाए मोह,,
शहरों से बढ़ता जाता नाता !
देखके ये परिस्थिति हे भैया,,
अब मेरा मन तो डूबा जाता !!
(12)
कौन-सी हवा, कैसी ये बयार
जन-जन को सम्मोहित करती ।
भूल चले सभी गाँव को भैया,,
चकाचौंध उनको मोहित करती ।।
(13)
बच्चा बोला रुठकर एक दिन माता से –
माँ ! मुझे भी दिलवा दो खद्दर का कुर्ता |
खद्दर का पाजामा और ला दो एक टोपी
मैं बनूँगा गाँधी-सा, नेहरु-सा एक नेता ||
(14)
माता बोली नहीं बनना है नेता तुझको,
बनने दे उनको बनना नेता है जिनको !!
गाँधी, नेहरु बनना यहाँ आसान नहीं है
राजनीति करना बच्चों का काम नहीं है ||
(15)
है परवाज़ से प्रीत परिंदे को ।।
है साज से संगत साज़िंदे को ।।
होती लगाव से लगन अजीब,
है बस्ती से प्रेम हर बाशिंदे को ।।
(16)
हैं ये हमारे पूर्वजों की रूहानियाँ ।।
हैं ये कहती बहुत सारी कहानियाँ ।।
यही जिक्र छेड़ती आदिम-कथा की,
हैं ये प्राचीन-सभ्यता की निशानियाँ ।।
(17)
ख़त तो मैंने कभी लिखे नहीं !!
गर लिखे तो कभी भेजे नहीं !!
कहाँ छुपा रखे हैं मैंने उन्हें ,,
अब तो उनकी याद मुझे नहीं !!
(18)
मैं एक फूल हूँ मेरी खुशबू फ़िज़ाओं में
बहुत दूर तलक जाएगी ।
मैं चाहे इस पार रहूँ या दरिया पार
आँधियाँ रोक ना पाएंगी ।।
(19)
इस जग में हैं दो जातियाँ,,
एक कहलाता नर दूजा नारी ।।
नारी नर पर हरदम भारी,,
संपूर्ण जग ने ये सच स्वीकारी ।।
(20)
तेरी उलफ़त में पड़कर दिल अब सँवरना चाहता है ।।
मेरा आवारा दिल शराफत में ढलना चाहता है ।।
बेकार इधर-उधर भटकता है ये मेरा बदमाश दिल,,
तेरी खातिर कुछ अच्छा काम अब करना चाहता है ।।
(21)
एक सूनसान सड़क पर,,
उनसे क्या आँखें चार हुई ।
हम दो हमारे दर्जन भर,,
दुनिया सौ से हजार हुई ।।
(22)
सोने पे सुहागा, अति मन को हरसाए ।।
थोड़े की चाह में जब अधिक हम पाएं ।।
वर मिला मुँह माँगा, सोने पर सुहागा,,
तब जुबान से बरबस बोल निकल आए ।।
(23)
कल-कल, छल-छल बहकर हमसे,
क्या-क्या कहतीं नदियाँ सुन-सुन ।।
हर-हर, झर-झर चलकर झरने,
क्या-क्या कहते हैं दुनिया गुन-गुन ।।
(24)
हाथों मे गिटार है ।
मुखड़े पे बहार है ।।
मुस्काता बचपन,,
हर हाल गुलजार है ।।
(25)
मैं हूँ एक अर्थहीन कृषक ।।
हृदय में मेरे बड़ी कसक ।।
मेरा कोई है नहीं रहनुमा,,
जीवन मेरा जैसे हो नरक ।।
(26)
सुकून से भर गई माँ निज गर्भ की आहट पाकर ।।
मरती थी जी गई नवजात की मुस्कराहट पाकर ।।
नवजात संजीवनी होते हैं हरेक माँ की खातिर ,,
माँ सर्वत्र लुटा देती है शिशु की घबराहट पाकर ।।
दिनेश एल० “जैहिंद”
22. 02. 2017