Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
21 Feb 2017 · 7 min read

हिंदीग़ज़ल की गटर-गंगा *रमेशराज

श्री यादराम शर्मा हिन्दी में ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका ‘कहकहों में सिसकियां’ नाम से ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। वे अपने इस संकलन में ‘जैसा मैंने पढ़ा’ भूमिका के अन्तर्गत ग़ज़ल के शिल्प पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि-‘‘ग़ज़ल की बह्र पर विशेष ध्यान दिया जाये। इसके अतिरिक्त अन्य बिन्दुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है-जैसे मतला, मक्ता, शे’र, रदीफ एवं काफिया।’’
रदीफ और काफियों को वे ग़ज़ल की प्राणवायु बताते हुए कहते हैं-‘‘यह जानना आवश्यक होता है कि रदीफ पूरी ग़ज़ल में एक ही रहता है। काफिया, तुकान्त का प्रतीक होता है, यह स्वरांत भी हो सकता है जैसे ‘हवा’ के साथ ‘लगा’ और ‘हुआ’ या ‘गयी’ के साथ ‘सदी’, ‘सगी’ और ‘सभी’ आदि।
श्री यादराम शर्मा की कही हुई बात को ही यदि थोड़ा-सा विस्तार दें तो अगर रदीफ पूरी ग़ज़ल में बदलता नहीं है तो काफिये का समान स्वर में आये बदलाव के आधार पर ही निर्धारण या निर्वाह करते हैं। ‘अ’ की तुक ‘आ’ या ‘इ’ की तुक ‘ओ’ या ‘ई’ से किसी भी प्रकार नहीं मिला सकते। काफिया तभी काफिया है, जबकि वह समान स्वर के आधार पर निरंतर बदलाव का संकेत दे। ग़ज़ल के मतला शे’र से ही यह निर्धारित किया जाता है कि स्वर के बदलाव का आधार किस स्थान पर या किस प्रकार किया जाये। मतला में यदि ‘नदी’ की तुक ‘सदी’ से मिलायी गयी है तो ‘दी’ दोनों में समान होने के कारण ‘न’ और ‘स’ बदलाव के आधार बनेंगे, अतः आगे की तुक ‘बदी’ या ‘लदी’ आदि ही हो सकती हैं। इन तुकों के स्थान पर अगर कोई ग़ज़लकार ‘सभी’, ‘रखी’, ‘बची’ आदि तुकों का प्रयोग करता है तो हर प्रकार अशुद्ध हैं। यदि मतला ‘सदी’ की तुक ‘सभी’ से मिलाकर कहा गया है तो ग़ज़ल के आगे के शे’रों के क़ाफिये ‘बची’, ‘बानगी’ ‘रोशनी’, ‘जी’, ‘चली’ आदि के साथ हर प्रकार शुद्ध होंगे। लेकिन इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मतला में आयी ‘सदी’ और ‘सभी’ तुकें आगे के शे’रों में ‘सभी’, सदी, ‘नदी’ ‘कभी’ आदि के रूप में नहीं आ सकतीं, वर्ना स्वर बदलने के आधार ही खत्म हो जायेंगे। अतः एक तुक का एक बार निर्वाह करने के बाद उसी तुक का दूसरी बार प्रयोग में लाना भी त्रुटिपूर्ण है। संयुक्त रदीफ-काफियों की ग़ज़ल के अन्तर्गत यदि मतला में ‘कहां’ की तुक ‘जहां’ है तो ‘धुआं’, ‘निशां’, ‘बयां’ आदि तुकें आगे के शे’रों में किसी प्रकार सम्भव नहीं। ऐसी ग़ज़ल में सिर्फ ‘हां’ को तुक के रूप में प्रयोग करना, इस बात का संकेत है कि कवि ने इस ग़ज़ल से रदीफ़ को ही ग़ायब कर डाला है। ऐसी रचना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती।
ग़ज़ल कहने या लिखने के लिये ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों, मूल स्त्रोतों, नियमों-उपनियमों अर्थात् ग़ज़ल की शिल्प सम्बन्धी व्यवस्था में रद्दो-बदल करने की छूट किसी भी रचनाकार को नहीं है। ग़ज़ल कहने का अर्थ ही यह है कि ग़ज़ल की मूल संरचना की पकड़ की जाये। जैसे दोहे की दोनों पंक्तियों में 24-24 मात्राएं होती हैं और इन पंक्तियों के अन्त में ‘दीर्घ’ के बाद ‘लघु स्वर’ आता है। इन पंक्तियों से 24-24 मात्राओं की संख्या घटा या बढ़ा दी जाये अथवा अन्त के [ दीर्घ के बाद लघु स्वर ] क्रम को बदल दिया जाये तो दोहा, दोहा नहीं रहता, ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल अपनी छन्द सम्बन्धी संरचना की मूलभूत विशेषताओं से कटकर, अपने ग़ज़लपन को खो देती है। अतः ग़ज़ल के छन्द में मात्राएँ बढ़ाकर और उन्हें गिराकर पढ़ने या लिखने का आधुनिक तरीका भले ही मान्य होता जा रहा है लेकिन यह तरीका हर प्रकार त्रुटिपूर्ण होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत देता है कि एक छंद में दूसरे छंद का द्वंद्व अन्तर्निहित है।
आजकल हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का चलन, फैशन की तरह रचनाकारों पर सवार है। जिसे देखो, उसे ही ग़ज़ल का बुखार है। ग़ज़ल के शिल्प की हत्या करते हुए ग़ज़ल लिखने का अन्दाज आज कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है। जिन लोगों को ग़ज़ल कहते समय ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों का निर्वाह करने में कठिनाई हो रही है, वे इसे सरल बनाने के हास्यास्पद तरीके गिना रहे हैं और गर्व से बता रहे हैं कि-‘‘ग़ज़ल में मतला और मक्ता के प्रयोग, शे’र की स्वतंत्रता, रुमानी कथ्य, सीमित बह्र और गेयता का निषेध होना चाहिए।’’
अर्थ यह कि ग़ज़ल और हिन्दीग़ज़ल में कुछ तो भेद होना ही चाहिए। यह सब बातें ‘प्रसंगवश’ पत्रिका के हिन्दीग़ज़ल विशेषांक 1994 में साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। ग़ज़ल से हिन्दी ग़ज़ल में भेद करने की यह लालसा ग़ज़ल के शिल्प में कितने छेद करेगी, इसकी चिन्ता न करते हुए और हिन्दी ग़ज़लकारों में नया जोश भरते हुए श्री महेश अनघ समझाते हैं कि-‘‘कथ्य की विभिन्नता रहते कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि एक शे’र के कथ्य को दूसरा शे’र काट देता है, अतः जरूरी यह है कि एक पूरी ग़ज़ल में जिस कथ्य को उठाया जाय, अन्त तक उसका निर्वाह किया जाये।’’
तेवरी को अपरिपक्वता का जामा पहनाने वाले श्री महेश अनघ जैसे रचनाकार इस प्रकार ग़ज़ल के ग़ज़लपन की हत्या कर, ग़ज़ल को कौन-सा परिपक्वता का जामा पहना रहे हैं, यह बात सहज तरीके से व्याख्यायित की जाये तो इतनी भर है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से इसलिये छूट ली जा रही है ताकि ग़ज़ल की गटर-गंगा को भी महिमा-मंडित किया जाये। हिन्दी में औसत ग़ज़ल-विशेषांकों से ‘प्रसंगवश’ का यह हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक भले ही सारगर्भित है और इसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की लूट भी इसमें दृष्टिगोचर होती है। इस अंक में शेरजंग गर्ग ‘रूठे’, ‘झूठे’, ‘अंगूठे’ की तुक सीना ठोक कर ‘फूटे’ ही नहीं ‘मूठें’ से भी मिलाते हैं और इस प्रकार हिन्दी ग़ज़लकार कहलाते हैं।
पद्मश्री गोपालदास ‘नीरज’ ख्याति प्राप्त गीतकार, होशियार और समझदार रचनाकार हैं, उनके हिस्से में सरकारी पुरस्कार हैं। अतः वह मतला में ‘चलाया’ की तुक ‘बनाया’ से मिलाने के बाद ‘बुलाया’ और फिर ‘बुलाया’ जैसी स्वर पर ही आघात करने वाली तुकों को अमल में लायें तो उन्हें टोक कौन सकता है? रोक कौन सकता है?
प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र हिन्दी साहित्य के प्रकाशवान नक्षत्र हैं। उनके मौलिक लेखन-कर्म के चर्चे सर्वत्र हैं। श्री वशिष्ठ अनूप इस विशेषांक के पृ. 66 पर मिश्रजी की तारीफ करते हुए कहते हैं कि-‘‘ इन शे’रों में परिवर्तन की चिन्गारी है, परोपकार की भावना भी और एक अच्छे इन्सान की ख्वाहिशें भी।’’
लेकिन उनके द्वारा उद्घृत ग़ज़ल में ‘हवा’ की तुक ‘छुवा’, ‘नवा’, ‘गंवा’ के बाद ‘दुआ’ तक पहुँचते-पहुँचते इस कदर स्वाराघात करने लगती है कि ग़ज़ल के शुद्ध क़ाफियों का बोध् शोध का विषय बन जाता है, यह ग़ज़ल का हिन्दी ग़ज़ल से कैसा नाता है?
श्री चन्द्रसेन विराट की दूसरी ग़ज़ल के मतला में ‘दरबार’ की तुक ‘हुंकार’ से मिली है। आगे यह ग़ज़ल ‘हुंकार’ को त्यागकर ‘मक्कार’, ‘बदकार’, ‘सरकार’, की ‘फटकार’ और ‘ललकार’ को भी गले लगाने से आनाकानी नहीं करती। ‘दरबार’ की परिधियों में कैद इस ग़ज़ल के अन्य क़ाफियों से यह ‘पुकार’ उभरती है कि क़ाफियों की बेतुकी ‘मार’ ‘यार’ हम क्यों झेलें ? ऐसे में विराटजी से यह कहने की हिम्मत कौन जुटाये कि ‘विराटजी अगर ग़ज़ल ही लिखनी है तो सही तुकें ले लें’।
श्री राजेन्द्र तिवारी की कलाकारी आज हिन्दी में खुशबू की तरह जारी है, इनके हिस्से में ग़ज़ल की झण्डेबरदारी है। इस विशेषांक के पृ.85 पर वे तुकों के रूप में ‘कलमकारों’ को ‘कारों’ में बिठाते हुए, इनको ‘अखबारों’ को ‘दरबारों’ तक ले जाते हैं वहां ‘दीवारों’ पर तुकों के रूप में ‘बंटवारों’ के नारे लगाते हैं। इस प्रकार इस ग़ज़ल के सबकेसब क़ाफिया सिसकते हैं।
श्री नित्यानंद तुषार अर्थात् हिन्दी के प्रतिनिधि ग़ज़लकार की इसी विशेषांक के पृष्ठ 89 पर छपी ग़ज़ल की शक़ल बिना रदीफ के ‘ई’ स्वर के आधार पर ‘गी’,‘नी’, ‘मी’, ‘दी’, ‘डी’ के माध्यम से बदलाव का सही आधार ज़रूर खड़ा करती है लेकिन इन्हीं तुकों में दो बार ‘भी’ आने से [ रदीफ के गायब हो जाने के साथ-साथ ] सही क़ाफियों के गायब होने का प्रमाण भी मिलता है। इसतरह हिन्दीग़ज़ल में कौन-सा गुल खिलता है?
डॉ. मोहदत्त साथी पृ. 109 पर अपनी ग़ज़ल में ‘दुमदार’ की तुक ‘असरदार’, ‘किरदार’, ‘सरदार’ से मिलायें और उसमें ‘दरबार’ और ‘सरकार’ को भी निबाहें अर्थात् ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनायें तो असहमति कैसी, दुर्गति कैसी?
श्री अंसार कम्बरी की जल्वागरी भी पृ. 90 पर यूँ उतरी है। इस पृष्ठ पर वे तुक ‘मत’ से ‘स्वागत’ और ‘दलगत’ निभाते हैं और इस प्रकार हिन्दीग़ज़लकार हो जाते हैं।
श्री शिवओम अम्बर की दूसरी ग़ज़ल में ‘आचरण’ का क़ाफिया ‘वैयाकरण’ से मिलने के बाद ‘अन्तकरण’ के ‘संस्करण’ की किस शुद्धता में खिला है, क्या यह भी ग़ज़ल के हाथों में प्याले की जगह मशाल थमाने का सिलसिला है?
श्री महेश अनघ जब ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने के साथ, छंद, तुक, लय के हर परिचय के सदाशय को रूमाल दिखाकर विदा करने पर ही उतावले हैं तो उन्हें यह कौन समझायेगा कि ‘तोड़ेगा’ की तुक ‘तोड़ेगा’ या ‘छोड़ेगा’ की तुक ‘छोडे़गा’ अशुद्ध हैं। यह बताने का अर्थ है कि उनका हिन्दी ग़ज़ल की स्थापना का महान सपना टूट जायेगा।
तेवरी भले ही अनपढ़ों के गढ़ों में कैद हो लेकिन हिन्दीग़ज़ल के पंख आसमान को छूने के लिये जिस प्रकार फड़फड़ा रहे हैं, इस तथ्य को इस विशेषांक में श्री मलखान सिंह सिसौदिया इस प्रकार बता रहे हैं- श्री सिसौदिया की ग़ज़ल की चाल-ढाल में ऐसा कमाल है कि समांत [ रदीफ ] ‘मुझे क्या हुआ’ से पहले अगर चार बार ‘पाता’ आता है तो दो बार ‘बताते’ क़ाफिया बनने का प्रयास करता है और कुल मिलाकर यह क़ाफियों का मिलान ‘घूमता हूं’ के स्वर में भुस की तरह बिखरता है।
अगर हम यादराम शर्मा की बात को पुनः उठायें और यह बतायें कि रदीफ और क़ाफिया ग़ज़ल की प्राणवायु होते हैं तो उल्लेखित ग़ज़लों से यही प्राणवायु फरार है। कुल मिलाकर औसत हिन्दी ग़ज़ल बीमार है। पर हिन्दी ग़ज़लकार है कि डॉ. राकेश सक्सेना [ प्रसंगवश, हि.ग.वि.पृ.114 ] के रूप में मतला में ‘मचलने’ की तुक ‘संभलने’ से मिलाने की बाद आगे के नये क़ाफिये ‘गड़ने’ ‘झगड़़ने’ और ‘लड़ने’ भी गढ़ रहे हैं और यह कहकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं कि-
गंगाजली में तुलसी, पीपल की छाँव से
ऋषियों की भाव-भूमि में पलने लगी ग़ज़ल।
———————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
456 Views

You may also like these posts

शब्द
शब्द
Dr. Mahesh Kumawat
"I'm someone who wouldn't mind spending all day alone.
पूर्वार्थ
उड़ने दो
उड़ने दो
Seema gupta,Alwar
कुछ बातें ज़रूरी हैं
कुछ बातें ज़रूरी हैं
Mamta Singh Devaa
ग़लतफ़हमी में क्यों पड़ जाते हो...
ग़लतफ़हमी में क्यों पड़ जाते हो...
Ajit Kumar "Karn"
लगते नये हो
लगते नये हो
Laxmi Narayan Gupta
किसी भी रूप में ढ़ालो ढ़लेगा प्यार से झुककर
किसी भी रूप में ढ़ालो ढ़लेगा प्यार से झुककर
आर.एस. 'प्रीतम'
श्रंगार
श्रंगार
Vipin Jain
वो हमें भूल ही नहीं सकता
वो हमें भूल ही नहीं सकता
Dr fauzia Naseem shad
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
डॉ अरुण कुमार शास्त्री
DR ARUN KUMAR SHASTRI
3198.*पूर्णिका*
3198.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
दोहा
दोहा
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
हर दिन एक नई दुनिया का, दीदार होता यहां।
हर दिन एक नई दुनिया का, दीदार होता यहां।
Manisha Manjari
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
साहित्य गौरव
हर रोज याद आऊं,
हर रोज याद आऊं,
लक्ष्मी वर्मा प्रतीक्षा
बस जाओ मेरे मन में , स्वामी होकर हे गिरधारी
बस जाओ मेरे मन में , स्वामी होकर हे गिरधारी
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
मुहब्बत में उड़ी थी जो ख़ाक की खुशबू,
मुहब्बत में उड़ी थी जो ख़ाक की खुशबू,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
शुभांगी छंद
शुभांगी छंद
Rambali Mishra
शिखर
शिखर
Kaviraag
" चापड़ा-चटनी "
Dr. Kishan tandon kranti
अब हम उनके करीब से निकल जाते हैं
अब हम उनके करीब से निकल जाते हैं
शिव प्रताप लोधी
जय श्री राम
जय श्री राम
Sunita Gupta
केवल पुस्तक से नहीं,
केवल पुस्तक से नहीं,
sushil sarna
Yes some traumas are real.... time flies...everything change
Yes some traumas are real.... time flies...everything change
Ritesh Deo
प्यार की चंद पन्नों की किताब में
प्यार की चंद पन्नों की किताब में
Mangilal 713
*वृक्ष लगाओ हर साल*
*वृक्ष लगाओ हर साल*
Krishna Manshi
गरीब और बुलडोजर
गरीब और बुलडोजर
सोलंकी प्रशांत (An Explorer Of Life)
*नंगा चालीसा* #रमेशराज
*नंगा चालीसा* #रमेशराज
कवि रमेशराज
*
*"बापू जी"*
Shashi kala vyas
ये अश्क भी बे मौसम बरसात हो गए हैं
ये अश्क भी बे मौसम बरसात हो गए हैं
Gouri tiwari
Loading...