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12 Dec 2025 · 1 min read

"आसमान के परों को, और फैलाना है मुझे"

टूटकर भी मैं सँवरूँ, ये हुनर आया मुझे,
अब हवाओं से नहीं, खुद रास्ता बनाना है मुझे।

सफर से डरकर कभी, मंज़िलें पायी नहीं जातीं,
धूप में चलकर ही तो, पहचान बनाना है मुझे।

अब शिकायतों के साये, मेरे पीछे नहीं चलते,
वक़्त की दीवारों पर, नाम अपना लिखाना है मुझे।

जो थमा दे किस्मतों को, वो हाथ मैं बनूँगी,
अपनी दुनिया को नया, रूप दिखाना है मुझे।

झुकूँगी अब कहाँ मैं, जब इरादे संग मेरे,
आसमान के परों को, और फैलाना है मुझे।
©® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”

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