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26 Nov 2025 · 1 min read

गुस्ताख़ आँखे

बड़े ‘पुर-असरार’ हो तुम, कुछ दिखाते भी नहीं,*
मुझे तुम पढ़ने भी नहीं देते… और बताते भी नहीं।

​छुपा रक्खा है क्या दिल में? ज़ुबाँ खुलती नहीं तेरी,
वो क्या डर है? जिसे चेहरे पे… लाते भी नहीं।

​चलो माना कि मैं ‘ग़ैर’ हूँ, तो फिर पर्दा ही क्या हमसे?
अगर मालूम हो जाए… तो हम आँसू ‘बहाते’ भी नहीं।

​तुम्हें जब फ़र्क पड़ता ही नहीं, मेरे तड़पने से,
तो फिर क्यों राज़-ए-दिल अपना… हमें खुलकर ‘सुनाते’ भी नहीं?

​यही ज़िद है, कि मैं जानूँ, तेरे अंदर है क्या आख़िर,
मुझे तुम पास रखते हो… मगर अपना ‘बनाते’ भी नहीं।

​अगर हमराज़ नहीं कहना, तो फिर रुख़सत ही कर दो अब,
अजब है इश्क़, कि रहते हो..और छोड़ के ‘जाते’ भी नहीं।

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