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22 Nov 2025 · 7 min read

कहानी –"शगुन और शव"

कहानी –”शगुन और शव”
लेखक – सुनील बनारसी

प्रस्तावना,
यह कहानी एक ऐसी शादी की है, जो खुशियों के बीच अचानक मातम में बदल गई। “शगुन और शव” सिर्फ एक बारात की घटना नहीं, गांव के बदलते माहौल, छोटी-छोटी बातों में उग्र होती हिंसा, और समाज की चुप्पी की कहानी है। इसमें एक साधारण युवक की असाधारण त्रासदी छिपी है — और साथ ही एक सवाल भी: क्या हमारे गांव अब भी उतने सुरक्षित हैं, जितने कभी कहे जाते थे?

कहानी – “शगुन और शव”

गांव रसूलपुर की संकरी गलियों में हलचल थी। लोगों की आवाज़ें, गायों के रंभाने की आवाज़, और चूड़ी की खनक, सभी के बीच एक नया उत्साह था। आज भोला प्रसाद के बेटे हरिशंकर की शादी थी। भोला प्रसाद का छोटा सा घर, जो ज़मीन से सटा हुआ था, आज भीड़ से गुलजार था। आंगन में लहराती चूड़ी, घुंघरुओं की खनक, और सबके चेहरों पर मुस्कान थी। यह उत्सव ही था, जो हर किसी की उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करता था।
हरिशंकर, जिसकी आंखों में छोटे या बड़े शहर का सपना नहीं, एक संघर्षशील यात्रा की छाया थी — आज उस छोटे से गांव रसूलपुर के आंगन में दूल्हा बना बैठा था। वह उन लड़कों में से था, जिनकी सुबह खेतों की मेड़ से शुरू होती थी और रात दलान की बुझी आग के सामने ख़्वाबों की राख कुरेदते बीतती थी। उसकी पढ़ाई गांव के सरकारी स्कूल से शुरू होकर जिला कॉलेज तक पहुंची थी, और वो अब शहर के प्राइवेट ऑफिस में एक क्लर्क की नौकरी करता था — छोटी सही, मगर खुद के बूते खड़ी हुई दुनिया।
हरिशंकर का सपना था कि वह गांव की धूल से उठकर एक दिन पक्के मकान, टाइल्स लगे फर्श और गैस चूल्हे वाली ज़िंदगी को अपने मां-बाप की हथेली पर रखे। वह जानता था कि यह रास्ता आसान नहीं, लेकिन ठोकरें खाकर चलने वालों को ही मंज़िल की ज़मीन मज़बूत लगती है।
आज उसी हरिशंकर की शादी थी चांदनी से — बख्तियापुर गांव की एक संस्कारी, सौम्य और पढ़ी-लिखी लड़की, जिसने इंटरमीडिएट तक शिक्षा पाई थी और घरेलू कामों में दक्षता उसकी आंखों से ही झलकती थी। चांदनी की मां जब रिश्ते के समय हरिशंकर को देखकर बोली थी — “हमरी बिटिया तो चुप्पे चाप के घर संभाल लेई,” तो भोला प्रसाद की आंखें भर आई थीं। उन्हें लगा, जैसे बहू नहीं, बेटी घर आ रही है।
बख्तियापुर से बारात आई थी — सात बुलोरो और पांच अन्य गाड़ियों में, जिसमें गांव के बुजुर्ग, जवान, और बच्चों की टोली थी। चांदनी का परिवार थोड़ा सम्पन्न था, इसलिए बारात का स्वागत बड़े मन से हुआ। बारात रसूलपुर पहुंची तो गांव की गलियों में पहली बार माइक पर अंग्रेज़ी गाने गूंजे —
“लेडिज़ एंड जेंटलमैन, प्लीज़ वेलकम द ग्रैंड बारात ऑफ मिस्टर हरिशंकर!”
बच्चे कौतूहल से छतों पर चढ़ गए थे, बुजुर्ग कान बंद करके घर के भीतर दुबकने लगे थे। गांव की कच्ची सड़क पर, फूलों से सजी बोलेरो और स्कॉर्पियो की कतारें थीं, जिनके बोनट पर अब नारियल नहीं, रिबन बंधे थे।
बारातियों की अगुवानी अब “फूल-माला” से कम और “फोटोग्राफर के फ्रेम” से ज़्यादा होने लगी थी। हर कोई कैमरे के सामने मुस्कुरा रहा था — मानो शादी नहीं, कोई रियलिटी शो हो।
भोजन की व्यवस्था अब मिट्टी के चूल्हों से हटकर गैस सिलेंडर और टेंट हाउस के किचन में पहुंच गई थी। पांच-पांच परातों की जगह अब स्टील के कंटेनरों से निकला ‘बुफे सिस्टम’ था —
एक तरफ पनीर बटर मसाला,
दूसरी तरफ शाही पुलाव और रायता,
चाट काउंटर पर पापड़ी, टिकिया, पानीपुरी,
और मिठाई में गर्म गुलाब जामुन और ठंडी आइसक्रीम।
पत्तलें अब प्लास्टिक की थीं — और जिन हाथों से कभी दुल्हन को मेंहदी रचती थी, वही हाथ अब मोबाइल में प्लेट की फोटो क्लिक कर रहे थे।। लड़कियों की टोली गीतों से स्वागत कर रही थी—
“बराती आए अंगना, फूलन के सेज सजाइब…”
“जिस समाज में अब भोजन स्वाद से नहीं, इंप्रेशन से परोसा जाता हो, वहां संबंध भी टिकाऊ नहीं, दिखाऊ बन जाते हैं। पहले जब पूड़ी में घरातियों के हाथ की खुशबू होती थी, तब रिश्ते मीठे होते थे। अब जब पूड़ी की जगह पनीर टिक्का है, तब मिठास फोटो में दिखती है,आहार में नहीं।”
उस शाम रसूलपुर और बख्तियापुर जैसे आपस में आत्मीयता का पुल बन गए थे। गांव की गली में पहली बार इतनी रोशनी जली थी कि रात भी चौंककर देखे — यह उत्सव था या कोई सपना?
लेकिन कौन जानता था कि इस सपने के नीचे एक अनकही अशांति भी करवट बदल रही है…
शादी की शुरुआत में ही DJ के बैंड का संगीत तेज़ी से बज रहा था। हरिशंकर ने पहले से ही ज़ोर-ज़ोर से गाने के लिए मना किया था, लेकिन बात बढ़ने लगी। यह एक छोटी सी बात थी, लेकिन उस पर जैसे पूरे गांव की आस्था और इज्जत को दांव पर लगा दिया गया था।
बारात में नाचते-गाते लड़कों का झुंड संगीत के लाउड बीट्स पर झूम रहा था। बारात के साथ बजता डीजे —
“लो चली मैं, अपनी पिया के रंग में…”
अब नाच में उमंग नहीं, प्रदर्शन की हवस थी।लड़के,लड़कियां, बूढ़े, जवान — सभी थिरक रहे थे, और बीच-बीच में शराब की बोतलें गाड़ियों की डिक्की से निकल रही थीं।
इस उत्साह के बीच ही दो लड़के, पिंटू और राजा ने एक दुसरे से कुछ कहा जो धीरे-धीरे विवाद में बदल गया। एक बहस जो पहले केवल शब्दों तक सीमित थी, अब लाठी-डंडों में तब्दील हो गई थी। बैंड की तेज़ आवाज़ में यह आवाज़ें और भी तेज़ हो रही थीं।
गंगा राम के बेटे बब्लू और उसके साथ मोहन ने डीजे का वॉल्यूम कम करने की कोशिश की, लेकिन विवाद और बढ़ गया। पिंटू ने मोहन से कहा, “तू कौन है जो हमारी खुशी पर पानी डाले?” यह शब्द एक चिंगारी की तरह फैले और लड़ाई में बदल गए। तब तक, हरिशंकर जैसे शांति बनाए रखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उस वक्त यह सब इतना बढ़ चुका था कि न केवल शारीरिक संघर्ष हुआ बल्कि अहंकार और इज्जत की लड़ाई बन गई।
कभी भी किसी समुदाय में संघर्ष एक बात से नहीं, बल्कि अहंकार की लड़ाई से फैलता है। एक चिंगारी से आग सुलगने में देर नहीं लगती। “जो हमें छोटा समझे, वही हमारे लिए कितना बड़ा साबित हो जाता है,” ये शब्द उस वक़्त का सत्य थे। अंत में, पिंटू ने एक बार मोहन की ओर क्रोध दृष्टि से देखा। मोहन का चेहरा तमतमाया हुआ था, मानो भीतर उबलते लावे को किसी ने कलेजे में बंद कर रखा हो। दोनों आंखें लाल थीं, और होंठों पर सख़्त प्यास — प्यास किसी जवाब की नहीं, प्यास थी अपमान को लहू से धो डालने की पिंटू वहीं पास खड़ा था — वही पिंटू, जो गांव में अपने को नेता समझता था और जिसकी जेब में एक जंग लगा तमंचा बरसों से अपनी भूख लिए सोया था। जब भीतर की भभक बढ़ जाती है, तो आदमी को किसी बाहरी भड़कावे की ज़रूरत नहीं होती — बस एक इशारा काफी होता है।
मोहन के होंठ हिले — कुछ बुदबुदाया, शायद कुछ कहा भी हो, जो केवल पिंटू ने सुना। और फिर एक तमंचे से हरिशंकर के सिर पर मारा। बारात के शोर में जब तमंचे की चोट गूंजी, और हरिशंकर रक्तरंजित होकर ज़मीन पर गिरा, तो जैसे पूरा गांव स्तब्ध हो गया। किसी को पहले विश्वास नहीं हुआ कि यह मज़ाक नहीं, एक हत्या थी। मंडप से उठता धुआं एक तरफ और चांदनी की सिसकियां दूसरी तरफ। मां रोती हुई गिर पड़ीं, बापू की आंखें सूख गईं — उनके होंठ सिर्फ यही कह पा रहे थे, “किससे क्या बिगाड़ा था इस लड़के ने?” यह था वह वक्त, जब एक खुशी के पल ने एक दुखद अंत को जन्म दिया।
हरिशंकर को ज़मीन पर गिरते हुए देखकर, चांदनी की आँखों से आंसू बहने लगे। “उठिए! क्या कर रहे हैं आप?” उसने कांपते हुए अपने दूल्हे से कहा। वह न केवल उस समय के भय से डरी थी, बल्कि अपने सपनों के टूटने का डर भी उसके भीतर था। उसने हरिशंकर को उठाने की कोशिश की, लेकिन उसे समझ नहीं आया कि कैसे किसी को बचाया जा सकता है, जब हर चीज़ चुपके से अपने अंत की ओर बढ़ रही हो।
गांव में घबराहट फैल गई। कुछ लोग दौड़े और अस्पताल ले जाने की कोशिश की। लेकिन जब हरिशंकर को अस्पताल तक पहुँचाया गया, तो कुछ ही घंटों बाद उसकी मौत हो गई।
अब यहां एक और पहलू था, जो सिर्फ एक शोक नहीं था, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी थी। शादी की खुशियाँ इस कदर जंग में बदल चुकी थीं कि एक छोटे से विवाद ने पूरे परिवार को उजाड़ दिया था। क्या यह केवल एक दुर्घटना थी, या फिर समाज का एक गहरा रूप था, जिसमें ऐसे छोटे-छोटे संघर्षों को हम बड़े मुद्दे बना लेते हैं?
कहते हैं, “शादी का दिन जीवन का सबसे खुशहाल दिन होता है,” लेकिन जब उसे इस तरह की हिंसा और विवाद का सामना करना पड़े, तो क्या फिर वह दिन सचमुच जीवन का सबसे खुशी भरा दिन बन पाता है? यह प्रश्न है, जिसे समाज को हल करना होगा। क्या हम अपनी खुशी को दूसरों की पीड़ा के रूप में देखेंगे?
“हम समाज में परंपराओं और संस्कृतियों को सम्मान देने की बात करते हैं, लेकिन क्या यह परंपराएँ, जो हमें जोड़ने का काम करती हैं, हमें जरा सी बात पर तोड़ने का कारण नहीं बनतीं? क्या एक छोटी सी लापरवाही, एक विवाद, एक पल का गुस्सा हमारी पूरी मानवता को निगल नहीं जाता? अगर हम अपनी बातों और कार्यों के परिणामों पर गहराई से विचार करें, तो शायद ऐसी घटनाएँ कभी न घटें।”

सुनील बनारसी

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