जनता का कवि
लालच में आकर कविता का करता मैं अपमान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
जब शोषित-पीड़ित बिन खाए
रात-रात भर जगता है
स्वर्ण-जड़ित आसन पर बैठा
मानव, दानव लगता है
कलम कभी यह कर सकती उस दानव का सम्मान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
देख कृषक की बढ़ती पीड़ा
बहुत व्यथित हो जाता हूँ
मजदूरों, मज़लूमों पर मैं
अपनी कलम चलाता हूँ
शासन की बस शान बघारूँ इतना भी नादान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
अपने मन का मालिक हूँ मैं
अपनी धुन में रहता हूँ
कोई लालच कितना भी दे
सदा सत्य ही कहता हूँ
लिखता हूँ तो हानि-लाभ का रहता बिल्कुल भान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
जब कोई नेता जनता पर
तानाशाही करता है
जनमानस की पीर लिए कवि
कोई यहाँ उभरता है
कलमकार की चीख दबाना होता है आसान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
जनता का हक मार-मार कर
खूब तिजोरी भरते हैं
न्यायालय से भी ये नेता
नहीं तनिक भी डरते हैं
इनको कवि दर्पण दिखलाते जो होते दरबान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
कवि कोई अपनी कविता में
जन की तान सुनाता है
शासक मिट जाते पर उसका
काव्य अमर हो जाता है
कविता की खातिर दुनिया में होते हैं शमशान नहीं
जनता का कवि हूँ करता मैं सत्ता का गुणगान नहीं
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 23/10/2025