लखनऊ स्टेशन पर दर्शन और साहित्य की मुलाक़ात
एक बार लखनऊ स्टेशन पर दर्शन और साहित्य की आकस्मिक मुलाक़ात हो गई।
प्लेटफ़ॉर्म पर चाय की चुस्की लेते हुए दर्शन ने कहा —
“भाई साहित्य! तुम्हारे प्रोफेसर तो बड़े-बड़े भाषण झाड़ते हैं, लंबी-लंबी हांकते हैं, पर कोई बड़ा पुरस्कार तो हाथ लगता नहीं दिखता!”
साहित्य ने हल्की मुस्कान के साथ उत्तर दिया —
“पुरस्कार की चिंता हमें नहीं, क्योंकि हम कुछ नया तो रचते हैं; तुम्हारी तरह नहीं, जो आज भी बौद्ध, न्याय और वेदान्त पर ही अटके पड़े हो।
अरे, कब तक उन लोगों को ‘दार्शनिक’ घोषित करते रहोगे, जो वास्तव में दर्शन की कसौटी पर खरे उतरने योग्य ही नहीं हैं?
और रही बात पुरस्कारों की —
वह हमें आज नहीं तो कल मिल ही जाएंगे;
पर तुम्हारी तो कोई संभावना भी नहीं दिखती!
कम-से-कम दर्शन और दार्शनिकों की महान गरिमा का तो ध्यान रखो।”
यह सुनकर दर्शन झल्ला उठा,
ग़ुस्से में अपनी चाय अधूरी छोड़, बड़बड़ाता हुआ स्टेशन से चला गया।
~ प्रतीक झा ‘ओप्पी’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज