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19 Oct 2025 · 2 min read

काला पानी के मूक दीवारों से संवाद

तुम क्या हो?
सिर्फ़ ईंट-गारे का ढेर?
या एक ख़ामोश गवाह
यहाँ
खड़े हैं हम
समुद्र की नमक भरी हवा में,
जहाँ हर लहर एक चीख़ है
जो इतिहास के पन्नों में दब गई।
सेलुलर जेल,
तुम्हारी सात शाखाएँ,
ऑक्टोपस की तरह
जकड़े हुए हैं उन स्मृतियों को
जिनमें रोशनी का एक कतरा भी
गिराना मना था।
ओह, ये मूक दीवारें!
तुम पत्थर नहीं,
ठोस किए गए दर्द हो।
ईंट-ईंट में सिमटी है
वह सिसकी,
जो कोल्हू खींचते हुए थके
शहीदों के होंठों से निकली।
वीर सावरकर की कोठरी
क्या अब भी सुनती है
वह एकांत साधना?
वह स्याही, वह कलम
जो दीवारों पर
देश-प्रेम लिख जाती थी,
क्या तुम उसका तापमान
आज भी महसूस करती हो?
हर रोशनदान
एक संकरा भविष्य,
एक छोटा सा छल
कि बाहर दुनिया है।
मगर बाहर तो बस नीला पानी था,
हजारों मील तक फैले धोखे का समंदर
काला पानी।
काल का पानी।
मृत्यु का आश्वासन।
फाँसी घर!
तुम्हारी चुप्पी
सबसे ज़्यादा शोर करती है।
यहाँ अंतिम साँस का हिसाब नहीं,
यहाँ तो हर साँस
आज़ादी के नाम गिरवी रखी गई थी।
आज, पर्यटक आते हैं,
सेल्फी लेते हैं,
इतिहास को छूकर लौट जाते हैं।
पर क्या कोई सुनता है
तुम्हारी गूँजती खामोशी?
जो कहती है
आज़ादी एक रियायत नहीं थी,
एक कीमत थी,
जो हमने अपने लहू से चुकाई है।
दीवारों,
तुम सिर्फ स्मारक नहीं हो,
तुम हमारी चेतना का
अनवरत प्रश्न हो
क्या हम उस आज़ादी के लायक हैं,
जिसके लिए तुम इतने चुप रहे?
आज
अंधेरा ख़त्म हो चुका।
लेकिन यहाँ!
तुम्हारे इस अकेलेपन में,
मुझे दिखता है
वह अंधेरा
जो उस वक़्त भी था,
और आज भी है।
फर्क सिर्फ़ इतना है,
उस वक़्त
कोल्हू खींचने वाला आदमी
गुलाम था,
और आज?
वह सिर्फ़ एक भूखा वोटर है।
रोटी की मांग करता हुआ
एक फ़टेहाल नागरिक,
जिसके हाथ में
आज़ादी का सर्टिफिकेट है,
पर
उस पेट में
कल का बासी चावल तक नहीं।
तो बोलो,
तुम्हारी इन दीवारों से
कौन-सा संवाद करूँ मैं?
शहादत की महानता का?
या
आज की उस ‘भुखमरी’ का
जो बताती है
कि
यह ‘आज़ादी’
सिर्फ़ एक शब्द है
जिसे सुनकर
सिर्फ़
पेट की आँतें
कुलबुलाती हैं।

© अमन कुमार होली

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