प्रेम क्या है
कहाँ से करूँ प्रेम का आरम्भ
और कहाँ करूँ अंत
समझ से है परे मेरे…
प्रेम तो है अंतहीन, असीम, अपरिमित,
अक्षय, असीमित…
जहाँ प्रत्येक अक्षर,
प्रत्येक शब्द,
प्रत्येक पंक्ति
प्रेम की अनुभवति,
बनकर सहानुभूति
इस कण्ठ में है अटक जाती
हृदय टूट जाता
ये छाती दरक जाती…
आँखों से अश्रुधारा
सागर की लहरों की भांति बहने लगती…
सच कहूँ तो
प्रेम को संबोधित करने के लिए
मेरे पास शब्दों अभाव है
मैं स्वयं अयोग्य हूँ
लिखने के लिये प्रेम…
अनायास ही जब
मैं कुछ अक्षर लिखने का प्रयास, प्रयत्न,
चेष्टा, और यत्न करता हूँ…
चाहे वो स्वच्छ कागज़ पर ही क्यों न हो
ये कोमल, नरम, मृदु, हाथ,
अंतर्मन में आने वाले शब्दों को लेकर
जब भी कुछ लिखते हैं
तो
एक प्रेम कहानी,
प्रेम कविता,
प्रेम कथा लिख देते हैँ…
प्रेम है वह स्वर्ण
जो विरह की तपन से
हो जाए कुंदन…
अंततः
स्वर्णमयी “ प्रेम” को कलमबद्ध करने के लिए मुझ जैसे क्षुद्रसुवर्ण का क्या मोल…?
प्रेम…!
स्वर्ण, कंचन, कनक, कुंदन
मैं अब भी पीतल, कपिलोहा, क्षुद्रसुवर्ण हूँ,
प्रेम…!
पर्वत, गिरि, शैल, अचल,
मैं अब भी तुहिन, हिम, तुषार हूँ…
प्रेम…!
आकाश, गगन, अम्बर, व्योम,
मैं अब भी अचला, वसुधा, अवनी, हूँ…
प्रेम…!
जलधर, नीरद, पयोद, अभ्र
मैं नीर, सलिल, तोय, अंबु, हूँ
अंततः विषमता इतनी ही है :-
अमूल्य, मूल्यवान,
अतुलनीय और निर्मोल प्रेम,
मैं सस्ती, वहनीय वस्तु प्रेम…
मैं उन्नत पंक्तियों के माध्यम से कह चुका हूँ
परन्तु कुछ शब्द,
कुछ पन्क्तियाँ
लिखने को विवश हूँ…
एक-दूसरे को देखे बिना
प्रेम करना कितना असाधारण है,
विलक्षण, है…
जब मुझ जैसे महत्वहीन, नि:सार व्यक्ति ने इसका अनुभव अर्जित किया,
तब मुझे भान हुआ कि
जीवन के अनगिनत भ्रमण में
प्रेम का प्रवास सर्वाधिक दूभर होता है…
अर्थात:-
प्रेम वह स्वप्न है
जो साकार हो तो जीवन कृतार्थ
अन्यथा युगों-युगों की आस
एक अतृप्त प्यास…
इस प्रेम ने
कुछ लोगों को कर दिया विक्षिप्त,
कुछ लोगों को कर दिया सफल समृद्ध,
कुछ लोगों को कर दिया निर्बल, दुर्बल, अशक्त,
कुछ लोगों को कर दिया
सहनशील…
क्षमाशील…
फिर भी,
मैं ये नहीं कह सकता कि
प्रेम के निमित्त से मुझे सफलता, विजय, उपलब्धि, सिद्धि अर्जित हुई
या प्राप्त हुआ
असफल, विफल, निष्फल, निरर्थक, व्यर्थ जीवन…
मेरे आसन्न तो इतना विवेक भी नहीं,
इतना आत्मज्ञान भी नहीं
कि मैं
प्रेम के समक्ष अनावृत हो सकूं…
हे प्रेम…!
मैंने तुमसे किया है
असीम प्रेम, अगाध प्रेम,
अनंत प्रेम…
यद्यपि मैं
प्रेम के नाम का ‘ प’ भी नहीं जानता
मुझे पूर्णतः
ज्ञान भी नहीं
प्रेम मुझे समझ भी पाया या नहीं,
परन्तु मैं
प्रेम समझे बिना ही करता रहा प्रेम
बिना किसी स्वार्थ प्रेम,
निःस्वार्थ प्रेम…
हे प्रेम…!
मैंने तुम्हें अविराम उत्कृष्ट मित्र,
सर्वदा हितकारी सखा,
सदा श्रेष्ठ सहचर,
सहधर्मिणी, जीवनसंगिनी, प्राणप्रिय, की तरह भी किया प्रेम…
उस प्रेम में कोई स्वार्थ नहीं था,
बस प्रेम अनुराग की प्रत्याशा,
और आकांक्षा
थी…
जहाँ तक मेरा अंतःकरण देख सकता है,
मैंने तुम्हें देखा प्रेम…
क्योंकि:-
जहाँ स्वार्थ है
वहाँ प्रेम नहीं,
और
जहाँ प्रेम है
वहाँ स्वार्थ नहीं…
जहाँ भी जाता हूँ मैं,
किसी भी परिस्थिति में होता हूँ मैं,
प्रेम ही देखता हूँ मैं,
सोचता हूँ मैं,
प्रेम से कितना प्रेम करता है प्रेम…
अपनी कुछ अभिलाषा, आकांक्षा, चाह, को प्रेम की अभिलाषाओं में मिश्रित कर देना प्रेम नहीं है…?
जिस पथ पर चले हो प्रेम, उस पथ पर
तुम्हारा साथ निभाना भी प्रेम ही होगा,
क्या यह नहीं है प्रेम… .?
प्रेम की सफलता को अपनी उपलब्धि मानकर प्रेम के साथ चलना ही है प्रेम,
और
अवसाद, निराशा, दुःख, शोक, विषाद, को अपने सीने से लगाए चलना भी है प्रेम…
प्रकृति और ईश्वर की रचना है प्रेम…
यदि
स्वयं में ईश्वर को देखना ध्यान है,
तो
दूसरों को ईश्वर में देखना प्रेम है,
और
ईश्वर को सब में
और
सब में ईश्वर को देखना प्रेम ज्ञान है…
प्रेम की तृष्णा, प्रेम की कामना,
प्रेम की अभिलाषा,
प्रेम की कमी
स्मृति, स्मरण, सुध, को और भी अगाध, अथाह, गहन, घोर सघन कर देती है…
मेरे प्रेम…!
जब भी अंकित करता हूँ प्रेम
लिपिबद्ध, कलमबद्ध करता हूँ प्रेम
मेरी आत्मा, जीवात्मा, की तरंगिणी बहुत तृषित, तर्षित, तश्नगी,
हो जाती है प्रेम…
हे प्रेम…!
मैं जब भी प्रेम परावर्तन में हुआ दिशाहीन,
और
इस नश्वर जगत से बेसुध, अनजान, अज्ञानी, हुआ संवेदनहीन…
सूर्य की किरणे,
मेघों से घिरा आकाश,
मूसलाधार बारिश,
तारों की शीतलता,
प्रभात में दिखाई देती शीत कणो की लड़ी,
पहाड़ों के कलकल करते निर्झर स्रोत,
प्रकृति की सौंदर्यता
पुष्पों का सुवास और सुंदरता
जो भी मेरे सम्मुख आता,
वह तुम्हारे प्रेम का उपहार लाता…
मैं अपने अंतर्मन पर नियंत्रण नहीं रख पाता,
और अपने अंतर्मन में अलंकृत प्रतिकृति को देखता…
तत्पश्चात
“ प्रेम छवि” से करता संवाद
पर न तो “ प्रेम छवि” बोलती
और न ही मेरे
संताप समझती…
मैं जहाँ भी जाता
प्रेम ही प्रेम है होता
चितवन में प्रेम,
काया में प्रेम,
विकल्पों में प्रेम,
प्रसन्नता में प्रेम,
अप्रसन्नता में प्रेम,
प्रशंसा में प्रेम,
शिकायतों में प्रेम,
और
अपने हृदय में जो हर पल धड़कता है,
वह भी
“ प्रेम ही प्रेम” …
अतः
प्रेम के बिना
ना कोई प्रार्थना है
ना कोई परमात्मा