धर्म और भविष्य
धर्म
अतीत की शिला पर उकेरा हुआ
शब्दों का अजस्र अभिलेख,
जहाँ शंख की ध्वनि में
समय की गूँज सुनाई देती है,
और दीपशिखा की थरथराहट में
मानव का अनश्वर विश्वास।
किन्तु क्या भविष्य की धारा
केवल उन्हीं शिलालेखों की पंक्तियों में बहेगी?
नदी पर्वत से जन्म लेती है,
पर सागर तक पहुँचने के लिए
वह अनगिन मोड़ बनाती है,
पत्थरों को काटती है,
रेत को बहाती है।
यदि हम मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर ही
क्षितिज का स्वप्न रचेंगे,
तो क्या आकाश के
अनदेखे तारों तक पहुँच पाएँगे?
धर्म है बीज
गहन स्मृतियों की मिट्टी में दबा,
जिससे अंकुरित होती है
करुणा की हरियाली,
संयम का वृक्ष,
सहिष्णुता का वन।
पर भविष्य
वह है अंकुर की दिशा,
जिसे चाहिए
सूर्य का आलोक,
वर्षा की नमी,
और श्रम का रक्त-सिंचित जल।
धर्म यदि पवन है
तो वह यात्रा को दिशा देता है,
पर यदि पतवार को
केवल परम्परा की रस्सियों से बाँध दिया जाए,
तो नाव भटकती रहती है
स्मृतियों की झील में,
कभी अज्ञात सागर तक नहीं पहुँचती।
भविष्य चाहिए
धर्म का आलोक,
विज्ञान का तेज,
मानवता का विस्तार,
और वर्तमान की सजग दृष्टि।
तभी संभव है
कि सभ्यता की यह नाव
स्मृति और स्वप्न दोनों को साथ लेकर
अनंत सागर की ओर बढ़े।