आंखों की कथा
शिशु जन्म लेता है,
सबसे पहले खुलती हैं उसकी आंखें,
नीली, काली या धुंधली—
जैसे किसी अनजान द्वार से
जीवन झांक रहा हो।
आंखें माँ के चेहरे को पहचानती हैं,
पहली मुस्कान में झरना छलक उठता है,
आंखें बोलना सीख जाती हैं
बिना किसी स्वनिम के।
बचपन में आंखें गेंद की तरह लुढ़कती हैं,
खिलौनों के पीछे भागती हैं,
कभी रो पड़ती हैं,
कभी चमक उठती हैं
टॉफी देखकर।
आंखें बिछ जाती हैं
पिता के लौटने की आहट पर,
आंखें टंगी रहती हैं
दरवाजे की चौखट पर।
स्कूल का पहला दिन—
आंखों में संकोच,
आंखों में भय,
आंखों में जिज्ञासा का
असीम ब्रह्मांड।
पहली बार दोस्ती का हाथ थामा,
आंखों ने मौन संवाद किया।
बिना कुछ कहे,
दो आत्माएं जुड़ गईं।
यौवन में आंखें खिल जाती हैं
बसंत के फूल-सी।
आंखें झरने बहाती हैं
अनकहे प्रेम में,
आंखें तरेरी जाती हैं
ईर्ष्या में।
आंखें दिखाई जाती हैं
विद्रोह में,
जब परंपरा जकड़ लेती है
और दिल उड़ान भरना चाहता है।
प्रणय में आंखें समंदर बन जाती हैं,
जिनमें प्रिय की छवि
चाँदनी-सी तैरती रहती है।
कभी आंखें छलक पड़ती हैं
पहले स्पर्श पर,
कभी आंखें फिसल जाती हैं
किसी अनजाने चेहरे पर।
आंखें बिछ जाती हैं
प्रेमिका की प्रतीक्षा में,
आंखें टंगी रहती हैं
उस खिड़की पर
जहां से वह झांका करती है।
फिर आता है संघर्ष का समय—
नौकरी, जिम्मेदारी,
आंखों से नींद छिन जाती है।
पुतली फिरी रहती है
सपनों और हकीकत के बीच।
आंखें तरेरी जाती हैं
जब अन्याय देखा जाता है।
आंखें दिखाई जाती हैं
भ्रष्ट सत्ता को,
सड़क पर उतरे लोगों के बीच।
आंखें झरने बहाती हैं
जब अपनों से जुदाई होती है।
विदेश जाते बेटे को
माँ की आंखें विदा करती हैं
अश्रुओं के साथ।
आंखें मौन संवाद करती हैं
पति-पत्नी के बीच,
जहां बोलने की जरूरत नहीं,
सिर्फ़ देखना ही
प्रेम की भाषा है।
आंखें बिछ जाती हैं
बच्चों के सोते चेहरे पर।
आंखें टंगी रहती हैं
भविष्य की चिंता में।
धीरे-धीरे उम्र ढलती है।
आंखें अब उतनी तेज़ नहीं रहीं।
चश्मा लगाना पड़ता है,
फिर भी उनमें चमक बाकी है।
आंखें थक जाती हैं
जीवन की भागदौड़ से।
पुतली फिरी रहती है
बीते दिनों की यादों में।
आंखें झरने बहाती हैं
पुराने दोस्तों को देखकर।
आंखें मौन संवाद करती हैं
उन तस्वीरों से
जो एलबम में अटक गई हैं।
बुढ़ापे में आंखें सूख जाती हैं।
अश्रु भीतर रह जाते हैं।
कभी आंखें दिखाई जाती हैं
नाती-पोतों को,
कभी आंखें बिछ जाती हैं
उनके भोलेपन पर।
आंखें तरेरी जाती हैं
बीमारी के दर्द पर,
आंखें टंगी रहती हैं
दवा की शीशी पर।
फिर आता है अंतिम समय।
आंखें बुझने लगती हैं,
दृष्टि धुंधला जाती है।
आंखें चली जाती हैं—
उस ओर,
जहां से कोई लौटकर
नहीं आता।
पर आंखें फोड़ दी जाती हैं
समय की निर्दयता से,
आंखें नोच ली जाती हैं
हिंसा और युद्ध से।
फिर भी आंखें जीवित रहती हैं
स्मृतियों में।
आंखें बिछ जाती हैं
कब्र पर रखे फूलों में।
किसी प्रियजन की प्रार्थना में
आंखें टंगी रहती हैं
आकाश की ओर।
और जीवन की परिपूर्णता में,
आंखें अंततः
ब्रह्मांड की आंखों में
लीन हो जाती हैं।
© अमन कुमार होली