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24 May 2021 · 1 min read

नि:शब्द प्रेम

दुनिया में जी रहा हूं
मुताबिक तो नहीं जी रहा हूं मैं
वजूद को मेरा वजूद देख लेगा
नीर तेरे घट का नहीं पी रहा हूं मैं।

शुकून मिला होगा शायद मुझे डूबा कर
दुनिया से बनी व्यथा जो कह रहा हूं मैं
जहां के मुताबिक डूब रहा हूं मैं
बेखबर अभी जिंदा हूं
समंदर से लड़ रहा हूं मैं।

छोड़ गए अपने प्रेम करने वाले भी
आज तक उनके फटे कपड़े सी रहा हूं मैं
मानी जो मैंने इसे अपनी बेवकूफी
नींव कमजोर है या इमारत जो डह रहा हूं मैं।

मेरी व्यथा को क्या समझेगा समाज
सिर्फ सामाजिक प्रेम सुन रहा हूं मैं
कहने वाले तो क्या क्या कहते है
कभी करीब से ताल्लुकात किजिए
नि:शब्द प्रेम जी रहा हूं मैं।

बेखबर अभी जिंदा हूं
समंदर से लड़ रहा हूं मै।

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