कुंवारापन
“प्रेम” कर बैठती है
प्रायः एक विवाहिता स्त्री..
यद्यपि भरा होता है
उसके मांग में सिंदूर,
गले में मंगलसूत्र
पैरों में अंदु नूपुर…
फिर भी जुड़ जाती है
किसी की अनुभूति से….
किसी अपरिचित, अज्ञात, अनभिज्ञ से,
कह देती है कुछ अनकही बातें….
ऐसा नहीं कि वो है दुश्चरित्र
या उसका चरित्र है दूषित…
तो फिर क्या है वो…?
जो खोजती है वो…?
सोचा है कभी,
स्त्री क्या चाहती है….?
“स्त्री” चाहती है “प्रेम”
हो जाता है निराश जब स्त्री का मन,
रुक जाता है सांसों का प्रवाह
भरा-भरा सा अन्तर्मन,
लगता हो जैसे:-
कितना बोझ लाद दिया हो किसी ने,
बोझिल सी धड़कने
मानो धड़कना ही नहीं चाहती,
अधर मौन, स्तब्ध धारण किए,
जैसे सिल दिए हों किसी ने…
आंखे नमी लिए, चुभती सी, भारी सी,
अपने अंदर समेटे एक लवणीय, खारा सागर…
इतनी व्याकुल, इतनी उद्विग्न की,
कोई कंधे पर धैर्य बधाने को भी रख दे हाथ
तो तोड़ दे सारे अवरोध,
और बहा ले जाए,
अन्तर्मन के भीतर का भरा सारा गुबार…
क्योंकि तन से तो हो जाती है
“स्त्री”
विवाहिता, किसी की ब्याहता,
परन्तु अन्तर्मन रह जाता है कुंवारा…
किसी ने अन्तर्मन को छुआ ही नहीं,
कोई उसके अन्तर्मन तक पहुंचा ही नहीं,
बस वो रीती सी रह जाती है….
और जब कोई मिल जाता उसके जैसा
उसके अन्तर्मन को पढ़ने वाला
तो स्त्री बन जाती है खुली किताब
हो जाती स्पष्ट पारदर्शी
खोल देती है अपने अन्तर्मन के समस्त द्वार,
खोल देती है अपनी सारी ग्रंथि
तोड़ देती है मर्यादा के समस्त बाँध
हो जाती है विनम्रता से नतमस्तक
उस पुरुषोचित के सम्मुख….
कर देती है सबकुछ न्यौछावर,
जहां वो बोल सके स्वयं की बोली…
रह सके प्रसन्न,
जी सके सुख के दो पल…
बता सके बिना प्रतिबंध अपनी बातें,
हंस सके निर्भीक, और अभय हंसी…
इसे ही कहते लोग
अनुराग, प्रणय, स्नेह,
अनुरक्ति
और
“प्रेम”
परन्तु स्त्री तो करती है दूर
“कुंवारापन”
अपने अन्तर्मन का
280 Words