कहो... तुम आओगी ना??
नीम की शाखों में चुपके से उतर आई हरियाली,
जैसे किसी पुराने गीत में घुल गई हो ताज़ा धुन।
बरसों से रूठी गंध लौट आई गीली मिट्टी के संग,
और आकाश के कोनों में लटका है
रुई का टुकड़ा-सा धूप का सपना।
कुएँ की मुँडेर पर बैठी चिड़िया
बारिश की बूँदों को
अपनी चोंच में समेटकर
जैसे मोती गिन रही हो।
खेत के बीच खड़ा बिजूका
भीगकर फूल गया है,
और उसकी बाँहों में लिपटी लता
किसी भूले यार की राह तक रही है।
आँगन के कोने में रखी भीगी मिट्टी की गंध
नन्ही हथेलियों-सी थपथपा रही है मन को।
तालाब के जल में सूरज के सिक्के तैरते हैं,
और एक बगुला सोच रहा है —
कितनी दूर तक जाएगा सफ़ेद मौन।
सड़क पर चरवाहा अपनी बाँसुरी में
कच्चे गीत घोलता हुआ
भूल गया है घर का रास्ता।
मेरी आँखों में सावन का रंग
ऐसे उतर आया है
जैसे कोई पहली बार अपना नाम
बरसाती काँच पर लिखे।
आँगन में रखी बाल्टी में
मैंने तुम्हारी हँसी का अक्स देखा,
और जाना—
सावन सिर्फ़ पानी नहीं लाता,
कभी-कभी कोई चेहरा भी
बरसाकर चला जाता है।
तुम आओ तो मैं हवा को गिनूँगा,
तुम हँसो तो मैं पेड़ों की हँसी पहचान लूँगा,
तुम छुओ तो समझ जाऊँगा
कि मेघ भी आँसू रखते हैं।
और अगर तुम न आओ,
तो मैं बारिश के साथ बैठकर
तुम्हारी प्रतीक्षा का स्वाद
पत्तियों से चखता रहूँगा…!
आज से भादो शुरू हो गया…
तो अगले सावन…
कहो… तुम आओगी ना??