अरण्य, कानन की बयार में
नष्ट कर रहा था मैं स्वयं को,
अरण्य, कानन की बयार में
आए तुम, अर्जित किया मैंने स्वयं को
अरण्य, कानन की बयार में…
आगमनानन्तर पश्चात तुम्हारे
ये चक्षु, दृग, लोचन, मेरे
जो प्रवाहरत थे अनवरत
धूमिल हो गये हैं,
अधरों पर पुष्प प्रफुल्लित हो गए हैं
अरण्य, कानन की बयार में….
हुआ जो अंत: किरण में प्रेम प्रफुल्लित
और जिजीविषा जाग उठी
मैं चलूँगा शने: शने: संग तुम्हारे
कहीं शीघ्र पहुँचने का मन नहीं
अरण्य, कानन की बयार में…
वाहिनी, कुलिया खेतों में
द्रुत अति द्रुत हो अभिगम
उदगारित हो जाती जैसे
क्लांति, शिथिल एक पथिक हूँ मैं भी वैसे
अरण्य, कानन की बयार में…
हे प्रिय…
कुछ क्षण बैठो संग
विश्राम करो मेरे संग
इस अरण्य, कानन की बयार में….
जीवन की सर्व शिथिलता को मैं
यहीं विलुप्त कर देना चाहता हूँ,
जगत के स्वर्णिम आनंद को मैं
परिरंभण करना चाहता हूँ,
इस अरण्य, कानन की बयार में….
जिस क्षण पलकें झपकाता हूँ मैं
तो प्रतिबिंब तुम्हारा दिखता है,
दिवास्वप्न में जो नाम सुनता हूँ मैं
वो रमणीय नाम तुम्हारा है,
अरण्य, कानन की बयार में….
चलो प्रिय:-
चलते हैं अविराम
कहीं पहुँच ही जाएँगे
इस प्रेम के संग,
अनावृत आकाश में
अनवरत सागर की लहरों में
इस ब्रह्मांडीय में
अदृश्य अरण्य, कानन की बयार में….