स्तब्ध प्रेम
जिसे मैं वर्षों से करता आया प्रेम
वह मेरे पास आई, बैठी
दूर कहीं देखती रही
और बोली,
मैं नहीं करती तुमसे प्रेम…
मैं अचंभित स्तब्ध, हतप्रभ
देखता रहा मौन, अवाक्,
“वह चली गई”….
वो अलग, मैं अलग…
दूरियाँ….दूरियाँ….दूरियाँ….
हम दोनों दूर चले गए
लेकिन
उन शब्दों की गूँज से
मेरे कान के अंतःपट हमेशा संघर्ष करते रहे
अंतर्मन में एक गूँज बाकी थी,
मेरे अंतर्मन ने गूंजना कभी बंद नहीं किया
संभवतः
ये अंतर्मन की कोई अभिलाषा थी
कोई प्रयत्न, या कोई चेष्टा
वर्षों अंतराल के पश्चात हम फिर मिले,
लेकिन….
मेरी खामोशी अब भी थी कायम
वो कृश, क्षीण, दुर्बल,
शायद थक गई होगी,
लेकिन आँखें और भी रसीली
कामुकतापूर्ण…
माथे पर सिंदूर,
गले में मंगलसूत्र
अब भी कर रहीं थीं
उसकी मनमोहक आँखें मुझसे सवाल…
मैं अब भी था:-
मौन, शांत, स्तब्ध….
वो हँस पड़ी,
हँसते-हँसते आँखे नम
फिर एक उदासी…….
मैं अब भी था:-
मौन, शांत, हतप्रभ…
किसी की परवाह न करते हुए उसने कहा,
“क्या तुमने कभी मुझसे प्यार किया”…?
कंपन होठों ने तोड़ा मौन
मैं तो वर्षों से तुमसे प्रेम करता रहा हूँ,
तब भी और अब भी
“मैं तुमसे ही प्रेम करता रहा हूँ”
“फिर कभी कहा क्यों नहीं”……?
वो चली गई…
दूर…. बहुत दूर शायद अनन्त…..
मैं फिर:-
मौन, शांत, हतप्रभ…