प्रेम कविता
जब भी लिखता हूँ, कोई प्रेम कविता
समर के संघर्ष में,
टूटा हुआ, ठूंठ हुआ, पुराना वृक्ष
समय के घिसे-पिटे ढाँचे पर,
जीवन के उतार-चढ़ाव पर,
पुनः होने लगता है अंकुरित,
ठीक वैसे ही
जैसे झुर्रीयों युक्त, झुका हुआ कोई वृद्ध,
सुनाता है अपनी
युवावस्था के संघर्ष का आख्यान
जब भी लिखता हूँ, कोई प्रेम कविता
आँखों के समक्ष आ जाती है
वो सुकोमल, सुकुमार कोंपल बाला
जो शहर के हर चौक-चौराहे पर
बेचती है लाल-पीला-गुलाबी गुलाब
अबोध मुखड़ा, श्यामल काया
मानो उसे किया गया हो दंडित
उसके ऊपरी ओष्ठ की श्यामल रेखा
चाँद से दिखने वाली अद्भुत भित्ति जैसी…
जीर्ण-शीर्ण भवन जैसा कलेवर,
जो महानगर संदूषण से
पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुआ,
एक ऐसे ही हृदय के साथ,
वह भी तलाश कर रही है एक अदद
एक वैलेंटाइन की….
कहाँ बाँटे जाते हैं वैलेंटाइन…?
कहाँ बेचे जाते हैं वैलेंटाइन…?
किस विशाल उपहार योजना के तहत…?
जब भी लिखता हूँ, कोई प्रेम कविता
वही किशोरी मेरी लेखनी पर
लगा देती है प्रतिबंध,
मेरी अक्षर-जननी को
कर देती है अवरुद्ध,
और किसी रोमियो की कार को है रोक देती…
जब भी लिखता हूँ, कोई प्रेम कविता
श्यामल काया ये बाला मेरी सम्पूर्ण
एकाग्रता को कर देती है विखंडित
कर देती है मेरी तल्लीनता को भंग
मेरी कविताओं के शब्दों को
कर देती है अस्त-व्यस्त…
जब भी लिखता हूँ, कोई प्रेम कविता
करता हूँ मनन, करता हूं धैर्यता से चिंतन
इस बाला मुमताज को
मेरे शब्द, मेरी पंक्तियां, मेरी कविताएं
एक अदद शाहजहां तो दिला देंगे
समर्पित कर देंगे प्रेम भी,
पर नहीं कर सकेंगे समर्पित
“संगमरमर”….