वृद्धावस्था की उपेक्षा — समाज की आत्मकेन्द्रिक त्रासदी
वृद्धावस्था की उपेक्षा — समाज की आत्मकेन्द्रिक त्रासदी
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वर्तमान भारतीय परिवेश में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण सामाजिक ढांचे में गंभीर परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इन परिवर्तनों के चलते जहां व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला है, वहीं पारिवारिक एवं व्यक्तिगत संबंधों में भी शिथिलता स्वाभाविक रूप से आ गई है। आज हर व्यक्ति स्वतंत्रता की चाह में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को नकार रहा है। यही दृष्टिकोण युवा पीढ़ी और वृद्धावस्था के बीच एक गहरी खाई उत्पन्न कर रहा है।
भारतीय संस्कृति में जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। इनमें से गृहस्थ आश्रम को जहां सामाजिक उत्तरदायित्वों का केंद्र माना गया, वहीं वानप्रस्थ आश्रम को त्याग और सेवा का प्रतीक माना गया है। यह जीवन की वह अवस्था है जहां भोग नहीं, बल्कि आत्मानुशासन और सामाजिक हित का भाव प्रधान होता है।
परंतु आज का परिदृश्य भिन्न है। भौतिकता की अंधी दौड़ ने जीवन के नैतिक आधारों को ही हिला दिया है। वृद्धजन, जो कभी मार्गदर्शक माने जाते थे, अब एक बोझ की भांति देखे जा रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आज की वृद्ध पीढ़ी भौतिक अपेक्षाएं नहीं रखती—वे केवल अपने बच्चों का साथ, स्नेह और सम्मान चाहते हैं। वे वृद्धाश्रमों की एकाकी दीवारों में नहीं, बल्कि अपने परिवार की गोद में रहना चाहते हैं।
किन्तु दुर्भाग्य! आज की आत्मकेन्द्रित संतान अपने वृद्ध माता-पिता की इन भावनात्मक संवेदनाओं से विरक्त हो चुकी है। वे उन्हें केवल कुछ धनराशि भेज कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। यह केवल सामाजिक त्रासदी नहीं, बल्कि नैतिक अधोपतन का प्रतीक है।
वृद्धावस्था में जब व्यक्ति को सबसे अधिक आत्मीयता और अपनत्व की आवश्यकता होती है, तब यदि उसे अकेलापन, उपेक्षा और अपमान मिले तो यह समाज के लिए एक चेतावनी है। युवा पीढ़ी यह भूल जाती है कि एक दिन वही भी वृद्ध होंगे। क्या वे भी अपनी संतान की उपेक्षा झेलने को तैयार हैं? क्या वे भी वृद्धाश्रमों की एकाकी दीवारों में तड़पने का साहस रखेंगे?
इस समस्या के कई कारण हैं—पाश्चात्य जीवनशैली, टी.वी. और सिनेमा की चकाचौंध, अश्लील साहित्य, व्यक्तिवादी सोच और डिजिटल युग का मोहजाल। इन सबने पारिवारिक विघटन को बढ़ावा दिया है और समाज को आत्मकेन्द्रित बना दिया है। प्रेम, त्याग, सहयोग, अपनत्व जैसे मूल्य लुप्त हो रहे हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज की नींव परिवार से बनती है और परिवार की आत्मा उसमें मौजूद वृद्धजन होते हैं। यदि हम अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं, तो हमें अपने विचारों में परिवर्तन लाना होगा। हमें चाहिए कि हम अपने वृद्ध माता-पिता को वह स्नेह, सम्मान और सुरक्षा दें जिसके वे वास्तव में अधिकारी हैं।
यदि युवा पीढ़ी समय रहते चेत जाए तो न केवल वृद्धावस्था की पीड़ा मिटाई जा सकती है, बल्कि एक सुदृढ़, सजीव और संस्कारी समाज की पुन: स्थापना भी संभव है।
डाॅ फ़ौज़िया नसीम शाद