समाज की विसंगति
यह विषमता, यह क्रूर व्यथा किसने रची?
इस दुर्दशा का उत्तरदायी कौन??
वृक्ष हरितिमा, नदियाँ जीवन, सब निर्ममता से लूटा।
प्रकृति का सारा उपहार व्यर्थ ही सूखा।
विकास के नाम पर यह कैसा घोर अंधियारा?
भविष्य के सुनहले स्वप्न सब मिट्टी में रूखा॥
एक ओर उच्च भोजन, वस्त्र विलासिता का भंडारा।
दूसरी ओर निरीह शिशु भूख से भूखा।
धन का अहंकार कैसा, करुणा कहाँ विलीन हुई?
मानवता का मूल स्वर क्यों हो गया झूठा?
सत्ता के सिंहासन पर बैठे कपट के धूर्ता।
जनता के पसीने की कमाई निर्दय लूटा।
न्याय के मंदिर में भी अब धन का बोलबाला।
सत्य का मुख कैसे दब गया, कौन बना मूँठा?
जाति, धर्म, संप्रदाय के द्वेष ने बाँटा समाजा।
मानव को मानव से ही क्यों बनाया दूजा?
वैर की आग में जल रहा सद्भाव का अमूल्य तंतु।
एकता का सूत्र टूटा, बिखर गया सूजा॥
चारित्र्य का मूल्य गिरा, अंध अनुकरण का रिवाजा।
अन्याय के सामने झुक गया हर सच्चा सूजा।
फिर भी अंतर में ज्योति है, उठो हे मानव जागो!
न्याय, धर्म, करुणा का पुनः रचो महासमाजा॥
– पं. भारमल गर्ग “विलक्षण”
– सांचौर राजस्थान (३४३०४१)
– 8890370911