पापा
याद मुझे आती है जब मैं रोता था,
खुद हाथों से दिए निवाले पापा ने ।
गुड़ियों का तो शौक कभी ना था हमको,
अपने सारे खेल सम्भाले पापा ने ।
अपने लिए तो विश्व बैंक ही गुल्लक था,
एक एक सिक्के रोज उछाले पापा ने ।
जब जब डर लगता था हमको रातों में,
अंधियारों में भरे उजाले पापा ने ।
खुद प्लास्टिक के जूते में दिन काट रहे
मुझे दिलाये महंगे वाले पापा ने ।
फटी सीट साइकिल की वो उपहास बने
मुझको लाखों लाख दे डाले पापा ने ।
जिनके जैकेट में तुरपाई छत्तीस थी,
मुझे मंगाए लेदर वाले पापा ने ।
मानस की चौपाई से समझाते थे,
राम सा सारे तम हर डाले पापा ने ।
अब भी जब डर लगता है रो लेता हूँ,
कर डाला अब राम हवाले पापा ने ।
~ धीरेन्द्र पांचाल