धीर धर रे मन...!
बन्धु-बान्धव, सब जुटे,
शोकादि भी था गहन।
रीति है सँसार की,
क्या ख़ूब था मँचन।।
हाँ मगर कुछ लोग,
बरबस कर रहे मँथन।
मोह, भ्रम हैं शत्रु,
अब किस भाँति हो खन्डन।।
मनुज ज्यों असहाय,
क्यूँ कर कर रहा क्रन्दन।
पँख हैं अब प्राण के,
ईश्वर की है बस लगन।।
खो गई सीमा क्षितिज की,
अब न कुछ वर्जन।
दाग़ ना इक भी रहा,
चादर हुई इकरँग।।
ना बचा, अरमान कोई,
ना गिला ही ज़हन।
अब निराशा, ना ही,
“आशा” का कोई बन्धन।।
पँचतत्वोँ मेँ मिली,
काया भले कँचन।
सरलता से शान्ति का ही,
अब हो बस अर्चन।।
जा रही गोरी चली,
है शाश्वत ये मिलन।
पिया भी आतुर हैं भरसक,
धीर धर रे मन…!