मैं तुम में,
मैं तुम में,
तुम्हारे हृदय में
हर रोज़ कुछ ढ़ूढ़ती रहती हूँ,
तुम्हारे आँखों में
कुछ पढ़ना चाहती हूँ।
पर क्या?
शायद वही जो
इतने लम्बे इन्तज़ार के बाद भी नहीं मिला
और शायद कभी मिलेगा भी नहीं।
जानती हूँ,
पर कम्बख़्त ये दिल मानता ही नहीं।
-लक्ष्मी सिंह