कुंडलिया कलश ( समीक्षा )

समीक्ष्य कृति : कुंडलिया कलश
कुंडलियाकार: मनजीत कौर ‘मीत’
प्रकाशक : साहित्य 24 पब्लिकेशन, पालम विलेज, नई दिल्ली-45
पृष्ठ: 120 ( पेपरबैक)
संस्करण : प्रथम (2025)
मूल्य: ₹199/-
मनजीत कौर ‘मीत’ एक सुपरिचित कुंडलियाकार हैं। वे मेरे संपादन में प्रकाशित ‘आधी आबादी की कुंडलियाँ’ का हिस्सा रही हैं। अभी हाल में ही उनका एक कुंडलिया संग्रह ‘कुंडलिया कलश’ नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें विविध विषयों पर आधृत 315 कुंडलिया छंद हैं। इन छंदों को ग्यारह अलग-अलग शीर्षक में विभाजित किया गया है। सर्वप्रथम देश से संबंधित 15 कुंडलियाँ हैं फिर स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित 30 कुंडलियों को रखा गया है। रामायण पर आधारित 30, महाभारत के कथ्य को आधार बनाकर 33 कुंडलियाँ रची गई हैं। पिता विषय पर 4 , चित्र आधारित ( लेडीज़ टेलर) 4 कुंडलियाँ हैं। सिख धर्म से संबंधित 5, जीवन के विविध रंग शीर्षक के अंतर्गत 166 कुंडलियाँ , 17 सियासी कुंडलियाँ और अंत में किसान आंदोलन से संबंधित 6 कुंडलियाँ हैं। पुस्तक के छंदों से गुजरते हुए पाठक को विषय वैविध्य का आनंद मिलना स्वाभाविक है।
इस कुंडलिया कृति को मनजीत कौर ‘मीत’ जी ने समीक्षार्थ मेरे पास भेजा है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि मैं गुण और दोष दोनों का निदर्शन करूँ, क्योंकि समीक्षा का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कवि या लेखक की प्रशंसा ही की जाए। समीक्षा शब्द ही सम्+ईक्षा से बना है, जिसका अर्थ है – सम्यक रूप से दृष्टिपात करना अर्थात जैसा लिखा गया है उसको उसी रूप में पाठक वर्ग तक पहुँचाना।
कृति की पहली कुंडलिया, कुंडलिया छंद के शिल्प से संबंधित है। चूँकि पुस्तक ही कुंडलिया की है अतः सर्वप्रथम उसकी चर्चा होनी भी चाहिए। ‘मीत’ जी ने सामान्य पाठक वर्ग को ध्यान में रखकर यह बताने का प्रयास किया है कि कुंडलिया एक मिश्रित छंद है जो कि दोहा और रोला के योग से बनता है। इसके शीर्ष पर दोहा और तत्पश्चात रोला छंद का प्रयोग किया जाता है।
आओ मिलकर हम रचें, कुण्डलिया संसार ।
दोहा – रोला दे रहे, मिल इसको विस्तार ।।
मिल इसको विस्तार, मारे कुण्डली बैठा ।
दोहा का फिर कान, देख रोला ने ऐंठा ।
बदले है ये चाल, व्याकरण साथ मिलाओ।
लिक्खें भाव अनेक, साथ मेरे तुम आओ ।। (पृष्ठ-9)
भारत एक प्राचीन एवं गौरवशाली देश है। हम सभी भारतवासियों को इसकी समृद्ध और वैविध्यपूर्ण विरासत पर गर्व है। अस्य उत्तरास्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज: श्लोक की याद दिलाता रीत जी का छंद अवलोकनीय है। इसमें कवयित्री ने भारत भू का भौगोलिक चित्र खींचा है तथा यह बताने का प्रयास किया है कि इसकी भौगोलिक संरचना इसके लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
भारत के है शीश पर, एक अनोखा ताज।
ढकी चोटियाँ बर्फ से, कहते पर्वतराज ।।
कहते पर्वतराज, औषधि भंडार भरे हैं।
गंगा का यह मूल, सगल वन हरे भरे हैं ।
चट्टानों की ढाल, राह जो खड़ी इमारत।
देती है ललकार, आँख उठती जो भारत ।। ( पृष्ठ-13)
स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित कुंडलियाँ के अंतर्गत कवयित्री ने विविध छंदों यह दर्शाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप व्यापार करने के उद्देश्य से आए अंग्रेज देश के मालिक बन बैठे और उन्होंने देश के शासन-प्रशासन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए और फिर भारतवासियों के दमन और शोषण का सिलसिला चल निकला। गांधी जी के नेतृत्व में आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई। जलियाँवाला बाग हत्याकांड, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लाला लाजपत राय, स्वदेशी आंदोलन, रौलट एक्ट, साइमन कमीशन के साथ-साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘दिल्ली चलो’ जैसे नारे भी कुंडलिया छंद का विषय बने हैं। अंग्रेज़ी सरकार किस प्रकार देशवासियों को अपना निशाना बनाती थी उसकी एक बानगी इस छंद में प्रस्तुत है-
शोषण जनता का करे, छीने वो अधिकार ।
कहने को गोरी मगर, थी ज़ालिम सरकार । ।
थी जालिम सरकार, पदों अधिकार जमाये ।
डंडे की वो नोक, सभी कानून मनाये ।
धन दौलत की लूट, करे लंदन का पोषण ।
जनता थी लाचार, दिनों दिन बढ़ता शोषण । । ( पृष्ठ-17)
माता-पिता और संतान का संबंध सदैव से पवित्र और अनुकरणीय रहा है। माँ-बाप की चिंता इसी बात को लेकर रहती है कि उसकी संतान एक सफल व्यक्ति बने। एक समय के बाद उन्हें अपनी चिंता नहीं रहती। वे अपने बच्चों को यही सिखाते और समझाते हैं कि किस प्रकार कामयाबी के आकाश को छुआ जा सकता है। बालक की कामयाबी की लालसा से सराबोर पिता बैठे-बैठे जो सपना देखता है वह उसके होठों पर मुस्कान ले आता है। ‘मीत’ जी ने इस कुंडलिया में न केवल पिता के मन के भावों को उकेरा है अपितु साथ ही एक दृश्यचित्र भी प्रस्तुत किया है।
फुर्सत में बैठे हुये, पर है एक तलाश ।
हसरत का फैला हुआ, आँखों में आकाश ।।
आँखों में आकाश, पिता बालक समझाये ।
छेड़े दिल के तार, ज़रा सा वह मुस्काये ।
मन में गहरी सोच, काश ये बने हकीक़त ।
पढ़ लिख जाये बाल, बैठ सोचे वह फुर्सत ।। ( पृष्ठ 50)
बचपन में खेले जाने वाले खेल बहुत ही निराले होते थे। जब बच्चे आपस में मिलकर तरह-तरह के खेल खेला करते थे। उन खेलों से शारीरिक एवं मानसिक विकास के साथ-साथ सामाजिकता का भी विकास होता था। एक -दूसरे से रूठना और फिर अगले ही पल मान जाना, लड़ाई करना और फिर दोस्त बन जाना बहुत ही आम बात होती है। मनजीत कौर ‘मीत’ जी की इस कुंडलिया को पढ़कर मन बचपन के दिनों में खो जाता है, वे दिन जो अब सिर्फ यादों और ख्वाबों में ही हैं।
बचपन की शैतानियाँ, चोर पुलिस का खेल ।
बात-बात पर रूठना, और उसी दम मेल ।।
और उसी दम मेल, नहीं दिन वापस आते ।
बनकर मुझको ख्वाब, लगे यूँ रोज़ सताते ।
बीत गई है उम्र, हुआ हूँ अब मैं पचपन ।
नहीं जवानी लुत्फ़, निराली बातें बचपन ।। (पृष्ठ-93)
देश में किसानों के हालात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। भारतीय कृषि जिसे मॉनसून के हाथ का जुआ माना जाता है। कभी सूखा फसल बर्बाद कर देता है तो कभी बेमौसम बरसात और बाढ़ सब कुछ तबाह कर देती है। उसे अपना जीवन चलाने एवं खेती-बाड़ी के काम के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है। कर्ज़ के बोझ तले दबा किसान आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए विवश हो जाता है। हालात से जूझते किसानों के जीवन में खुशहाली तभी आ सकती है जब सरकारें उनकी तरफ ध्यान दें, उनकी समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश करें।
सूखा पड़ता है कभी, बाढ़ रूप विकराल ।
कुदरत के इस रूप से, हलधर है लाचार ।।
हलधर है लाचार, माथ पर पड़ीं लकीरें ।
बढ़ता कर्जा बोझ, लगे जैसे जंजीरें ।
जूझ रहा हालात, हुआ है जीवन रूखा ।
दें सरकारें साथ, मिटे जीवन का सूखा ।। ( पृष्ठ-99)
भाव की दृष्टि से समृद्ध ‘कुंडलिया कलश’ के छंदों पर जब शिल्प की दृष्टि से विचार करते हैं तो कुछ कमियाँ नज़र आती हैं। उनका संकेत करना आवश्यक हो जाता है। कुंडलिया जो कि दोहा और रोला के योग से बना मिश्रित छंद है। अतः इसके लिए दोहा और रोला के विधान का पालन लेखन के समय करना आवश्यक होता है। दोहा छंद के दूसरे और चौथे चरणांत में अनिवार्यतः दीर्घ एवं लघु का प्रयोग होता है किन्तु निम्नांकित छंद में दोहा अंश में हर्षाए और इठलाए का प्रयोग किया गया है जो कि दोषपूर्ण है। यदि यह मान लिया जाए कि ये शब्द ‘हर्षाय’ और ‘इठलाय’ लिखे गए होंगे तो भी ये हिंदी के मानक शब्द रूप नहीं हैं और इसे प्रूफ रीडिंग की गलती के तौर पर भी देखा जा सकता है। इतना ही नहीं दोहा के तृतीय चरण में बारह मात्राएँ ही हैं। जब छंद खड़ी बोली हिंदी में रचा गया है तो फिर ‘माहि’ और ‘करहि’ जैसे शब्द रूपों के प्रयोग से बचने की कोशिश की जानी चाहिए थी।
यमुना अपने भाग पर, मन में अति हर्षाए ।
पाकर दरसन प्रभु का, और अधिक इठलाए ।।
और अधिक इठलाय, हुआ ये तट बड़भागी ।
देखे लीला बाल, हुआ यह मन अनुराागी ।
नित नित पाँव पखार, रंग तेरे है रमना ।
प्रीत बसी मन माहि, करहि विनती ये यमुना ।।( पृष्ठ 37)
निम्नलिखित छंद में दोहे चतुर्थ चरण की रोला छंद के अर्धांश के रूप में पुनरावृत्ति तो की गई है परंतु यदि के बाद के चरणांश से उसका पूर्वापर संबंध स्थापित नहीं हो रहा है- ‘खड़ा रहे भयभीत, हार मकड़ी नहि माने।’ पाँचवें चरण में तुकांत के रूप में पोषित शब्द का प्रयोग किया गया है जबकि छंद का समापन कोशिश से किया गया है। इन दोनों शब्दों को तुकांत के रूप में प्रयोग समझ से परे है। पाँचवें चरण के अंत में तुकांत के लिए कोशिश से मिलता-जुलता शब्द प्रयोग किया जाना चाहिए था।पाँचवें चरण के यति के पूर्वांश में ‘बार बार प्रयास ‘ में दस मात्राएँ ही हैं। अतः मात्रा दोष का निवारण करने का प्रयास किया जाना चाहिए था।
कोशिश करता जो सदा, निश्चित होवे जीत ।
लाख मुश्किलें घेरतीं, खड़ा रहे भयभीत ।।
खड़ा रहे भयभीत, हार मकड़ी नहि माने ।
चढ़ती बारम्बार, पहुँचती अंत ठिकाने ।
बार बार प्रयास, सफलता होगी पोषित ।
मंजिल तेरे पास, निरंतर कर तू कोशिश ।। (पृष्ठ 73)
जब हम खड़ी बोली हिंदी में काव्य-सर्जना करते हैं तो प्रयोग किए जाने वाले शब्द रूप भी हिंदी की प्रकृति अनुरूप मानक ही प्रयोग करने चाहिए। सृजन की जल्दबाजी में देशज शब्दों का प्रयोग काव्य सौंदर्य को क्षीण करता है। लोकभाषा में सर्जना में देशज शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है किंतु हिंदी में देशज रूप मान्य नहीं किए जा सकते।
इस तरह की त्रुटियों का परिमार्जन यदि पुस्तक प्रकाशन से पूर्व करने का प्रयास किसी छंद मर्मज्ञ से मिलकर किया जाता तो निश्चित रूप से भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से मणिकांचन संयोग सी एक महत्वपूर्ण कृति पाठकों के हाथों तक पहुँचती।
प्रकाशक महोदय द्वारा सुंदर और आकर्षक आवरण पृष्ठ तैयार किया गया है। पुस्तक में प्रयोग किया गया कागज भी उत्तम गुणवत्ता वाला है। इसके लिए प्रकाशक के लिए बधाई बनती है परंतु जब अंदर के पृष्ठों पर नज़र जाती है तो एक कभी बहुत ही शिद्दत से अखरती है और वह है छंद के चरणों की पंक्तियों का बराबर न होना। ये इस बात का संकेत है कि पुस्तक की सेटिंग पर ध्यान नहीं दिया गया। इतना तो सभी को ज्ञात होता है कि कविता की पंक्तियाँ बराबर होती हैं।
अस्तु, कुंडलिया छंद को समृद्ध करती मनजीत कौर ‘मीत’ जी की पुस्तक ‘कुंडलिया कलश’ का पाठक वर्ग भरपूर प्यार मिले और साहित्य जगत में यह कृति अपना यथेष्ट स्थान बनाने में सफल हो।
कृति एवं कृतिकार दोनों को मेरी ओर से अशेष शुभकामनाएँ!
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय