*थियोसोफी का ध्येय वाक्य : सत्यान्नास्ति परो धर्म:*

थियोसोफी का ध्येय वाक्य : सत्यान्नास्ति परो धर्म:
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थियोसोफिकल सोसाइटी का ध्येय वाक्य सत्यान्नास्ति परो धर्म: है। इस वाक्य को थिओसोफी के प्रतीक चिन्ह में शामिल किया गया है।
थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापक और विचार स्त्रोत मैडम ब्लैवेट्स्की ने बनारस के महाराजा के महल के प्रवेश द्वार पर जब इस वाक्य को लिखा हुआ देखा, तब यह उनके मन को भा गया था। इसमें निहित शुद्धता का आग्रह, विचारों की स्वतंत्रता तथा खोजपूर्ण मानसिकता का पालन-पोषण थियोसोफिकल सोसायटी की विचारधारा के सर्वथा अनुकूल है। यह चिंतन ही थियोसोफी की आधारशिला है।
सत्यान्नास्ति परो धर्म: का अर्थ है कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। इसका अर्थ है कि सत्य ही धर्म है। इसका अर्थ है कि जिस धर्म में सत्य नहीं है, वह वास्तव में धर्म नहीं है। हमें जीवन में जो कुछ भी धारण करना है, एक थियोसॉफिस्ट के नाते उसे सत्य की कसौटी पर रखने का दायित्व भी हमारा है और अधिकार भी हमारा है। सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है- इस विचार को सारी दुनिया को सौंपने का कार्य थिओसोफी को करना है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में सत्यान्नास्ति परो धर्म: के आदर्श को इस प्रकार आत्मसात करने की आवश्यकता है कि छोटे से छोटा कदम बढ़ाने से पहले हम उसे सत्य की कसौटी पर कसें और तदनुरूप आचरण करें।
मनुष्य का निर्माण बड़ी-बड़ी घोषणाओं से नहीं होता। बड़े-बड़े आयोजनों में हिस्सेदारी करके लंबे-चौड़े भाषण देना हमारे अंतःकरण को खुले तौर पर सामने लाने का कार्य संभवत नहीं कर पाते हैं। जब हम दैनिक जीवन में थोड़ा-सा असत्य बोलकर कुछ लाभ कमा लेते हैं, तो फिर हम आध्यात्मिक जीवन से सहसा कोसों दूर चले जाते हैं। दैनिक जीवन में थोड़ा-बहुत झूठ बोलकर हम स्वयं को कर्म-फल के सिद्धांत के अनुसार कितना बोझग्रस्त बना देते हैं, इसका हमें अनुमान भी नहीं होता।
अनेक बार हम में से बहुत से लोग यह कहते सुने जाते हैं कि संसार में बिना झूठ बोले काम नहीं चलता। लेकिन वास्तविकता यह है कि सच बोलने से हमारी आत्मा की शक्ति प्रबल होती है, जिसका मुकाबला झूठ बोलकर कमाई गई थोड़ी-सी दौलत से नहीं किया जा सकता।
सत्य पर दृढ़ रहकर ही भगवान राम ने चौदह वर्ष के वनवास को अंगीकृत किया था। अनेक बहाने सत्य के पथ से विमुख होने के लिए व्यक्ति को मिल जाते हैं। भरत के आग्रह की आड़ लेकर भगवान राम अयोध्या लौट सकते थे और सिंहासन पर विराजमान हो सकते थे लेकिन यह सत्य पर आधारित आचरण नहीं होता। उनसे सुमंत्र ने भी कहा कि महाराज दशरथ की यही इच्छा है कि आप अयोध्या लौट चलें। लेकिन रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है कि भगवान राम ने एक शाश्वत उत्तर सत्य के प्रति दृढ़ आग्रह को लेकर दिया था। उनका कथन था : धरमु न दूसर सत्य समाना । सत्य का अनुकरण करने की कठिन तपस्या से ही भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम बने। राजा हरिश्चंद्र का भी उदाहरण हमारे सामने है जिन्होंने सत्य के पथ पर चलते हुए अनेक मुसीबतें झेलीं लेकिन सत्य की राह नहीं छोड़ी। सत्य का पालन करने में सांसारिक जीवन में हमेशा कठिनाई आती है। झूठ बोलकर जीवन को सरल और सुविधाओं से भरा हुआ बना लेना एक आसान रास्ता है। सत्य की राह पर चलने के लिए तो हमें कॉंटे ही मिलेंगे।
अनेक बार सच बोलकर व्यक्ति भारी लाभ से वंचित रह जाते हैं। जो लोग किसी की झूठी तारीफ कर देते हैं, वह ऊॅंचे पद और सम्मान-पत्र ग्रहण कर लेते हैं। जबकि सत्य कहकर व्यक्ति को अनेक बार आक्रोश का ही सामना करना पड़ता है। सत्य कहना भी कठिन होता है और सत्य को सुनना भी कठिन होता है। सर्वोच्च लक्ष्य कठिन ही होता है। जीवन के विकास की सर्वोच्च ऊॅंचाई पर पहुॅंचना कठिनाई से भरा रास्ता है।
यह सत्य ही है जो हमें बताता है कि इस संसार में सब मनुष्य शारीरिक संरचना की दृष्टि से मूलतः एक जैसे हैं । केवल मनुष्य ही नहीं, इस सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में एक ही समान आत्म-तत्व प्रकाशित हो रहा है, इस सत्य की अनुभूति भी हमें धर्म के वास्तविक पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती है। हमारी चेतना जिस बात को सत्य मानती है, हम उसी को स्वीकार करेंगे- यही थियोस्फी है। हमारी चेतना कहती है कि समस्त प्राणी-मात्र के साथ हमारा एकत्व है और उस एकत्व का आधार सब में विद्यमान एक समान आत्मतत्व है, तब फिर हम इस रास्ते से पीछे नहीं हट सकते। सत्य की कसौटी पर जब हम चीजों को परखते हैं तो हम केवल इस आधार पर कि किसी पुस्तक में कुछ लिखा गया है अथवा कितने भी बड़े और महान व्यक्ति के द्वारा कुछ कहा गया है, हम ऑंख मूॅंदकर उसे स्वीकार नहीं करेंगे। हर बात को हम सत्य के प्रकाश में देखेंगे। सत्य की दृष्टि से आकलन करेंगे और जब तक हमें वह सत्य नहीं लगेगा, तब तक उसे स्वीकार करना हमारे लिए असंभव होगा।
सत्य के प्रति हमारी निष्ठा के नियम से एक बड़ा फायदा यह है कि हम बहुत सी पुस्तकों और बहुत से महापुरुषों के प्रति समान आदर का भाव विकसित कर सकेंगे। जब हम बहुत से ग्रंथों का अध्ययन करते हैं अथवा बहुत से महापुरुषों के विचारों को सुनते हैं, तब हमें पता चलता है कि उन सब में अद्भुत समानता है। वह सब अपनी-अपनी जगह पर सत्य हैं। वे जो कुछ कह रहे हैं, वह एक ही सत्य का अलग-अलग दृष्टिकोण तथा अलग-अलग भाषा-शैली में किया गया विवेचन है । सत्य को आत्मसात करने की प्रवृत्ति से हमारे भीतर उन सब महापुरुषों, उनके विचारों और उनकी पुस्तकों के प्रति एक समान श्रद्धा-भाव जागृत होगा।
हमारा ध्येय यही होना चाहिए कि जो सत्य है, वह मेरा है। और मैं उसे स्वीकार करके अपने जीवन में उतारूॅंगा। जो प्रवृत्ति अथवा विचार सत्य पर आधारित नहीं होंगे, मैं उन्हें अपने जीवन में कोई स्थान नहीं दूंगा। यह व्रत हमारे जीवन में अध्ययनशीलता को बढ़ावा देता है। विभिन्न विचारों पर गहन आत्ममंथन के लिए हमें प्रेरित करता है। अलग-अलग स्रोतों से जो विचार हमारे पास आते हैं, हम उन्हें प्राप्त करने में किंचित भी संकोच नहीं करते। हमें मालूम है कि हमारे लिए न कोई अपना है, न कोई पराया है। जो सत्य है, वही हमारा है। सत्य ही परमात्मा का स्वरूप है। सृष्टि के कण-कण में उस परमात्म-तत्व की उपस्थिति को जानना हमारे लिए कदापि अनुचित नहीं होगा। सत्य का अनुसंधान इस तरह हमारे लिए संपूर्ण सृष्टि की खोज बन जाएगा। केवल बाहर ही नहीं, हम अपने भीतर भी उस सत्य की खोज को गहरी लगन से करने के इच्छुक होंगे।
संसार अपनी रचना में परमात्म-तत्व का ही विस्तार है। सत्य को जानने और उसको जीवन में अपनाने की हमारी गहरी इच्छा एक ओर हमें पहाड़ों, नदियों और जंगलों में भ्रमण के लिए पुकारेगी; वहीं दूसरी ओर यह हमें शांत बैठकर अपने भीतर गहरे उतरने के लिए भी प्रेरित करेगी। एक बात और भी है! सत्य को ही जीवन में सबसे बड़ा धर्म मानने की प्रवृत्ति के कारण हम सब प्रकार के पूर्वाग्रहों से भी मुक्त हो सकेंगे। ऐसा नहीं कि हम किसी चीज को लंबे समय से सत्य समझ रहे हैं, तो उसे सत्य ही कहते रहेंगे। जिस क्षण हमें सत्य का नया अनुभव होगा, हम सत्य को सत्य कहने से नहीं चूकेंगे। सत्य हमारे जीवन में अनुसंधान की नई राहें खोलने की प्रवृत्ति बन जाएगी। सत्य के माध्यम से हम नए अनुसंधानों से अपने आप को जोड़ेंगे। किसी कार्य को हमारा समर्थन इसलिए होगा क्योंकि वह सत्य पर आधारित है।
हम मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को इसलिए अस्वीकार करेंगे क्योंकि यह जीवन की चेतना का सत्य नहीं है। सत्य का अर्थ कल्याणकारी रहेगा। हमारे लिए सत्य का अर्थ सुंदर होगा। यह सृष्टि जब हम छोड़ कर जाएंगे, तब इसे पहले से भी सुंदर, हरी-भरी, उपयोगी और शांत रूप देना ही हमारे लिए जीवन में सत्य को अंगीकृत करना होगा।
सत्य को सर्वोपरि धर्म मानने का और उसे आचरण में उतारने का सबसे बड़ा लाभ यह भी रहेगा कि हम परस्पर विश्वास पर आधारित समाज और परिवार का निर्माण कर सकेंगे। हम सब प्रकार से धोखा देने की प्रवृत्ति का परित्याग कर पाएंगे। वह कितना सुंदर समय होगा, जब इस संसार के सब मनुष्य छल से रहित होंगे। एक दूसरे की सहायता और सेवा के लिए हर समय तत्पर होंगे। तथा इस जीवन को सत्य रूपी आत्मतत्व की प्राप्ति का सहायक मानकर उपयोग में लाऍंगे।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
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