मानक मैथिली बनाम लोकमैथिली (Manak Maithili Banam Lokmaithili)

मानक मैथिली और लोकमैथिली के बीच मतभेद एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है, जो भाषा, संस्कृति, और सामाजिक पहचान से जुड़ा हुआ है। मैथिली, जो भारत के बिहार और झारखंड राज्यों के साथ-साथ नेपाल के मधेश क्षेत्र में बोली जाने वाली एक प्रमुख इंडो-आर्यन भाषा है, अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के लिए जानी जाती है। इसे 2003 में भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया, जिससे इसकी मान्यता और औपचारिक प्रयोग को बढ़ावा मिला। हालांकि, मानक मैथिली और लोकमैथिली के बीच का अंतर भाषाई नीतियों, साहित्यिक परंपरा, और सामाजिक धारणाओं के कारण विवाद का विषय बन गया है।
##मानक मैथिली बनाम लोकमैथिली##
मानक मैथिली वह रूप है जिसे औपचारिक शिक्षा, साहित्य, और सरकारी संदर्भों में प्रयोग के लिए मानकीकृत किया गया है। यह मुख्य रूप से दरभंगा और मधुबनी क्षेत्र के ‘इलिट’ (सभ्रांत) ब्राहमणों, कर्ण/कायस्थ की बोली पर आधारित है, जिसे मैथिली साहित्य और कथित विद्वानों ने प्राथमिकता दी है। दूसरी ओर, लोकमैथिली विभिन्न क्षेत्रीय बोलियों का समूह है, जो मिथिला क्षेत्र के ग्रामीण और सामान्य जनमानस द्वारा बोली जाती है। इन बोलियों में शब्दावली, उच्चारण और व्याकरणिक संरचना में भिन्नता होती है, जो स्थानीय संस्कृति और जीवनशैली को प्रतिबिंबित करती है।
कथित तौर पर, कुछ लोगों द्वारा मानक मैथिली को थोपने की कोशिश को लोकमैथिली के “सुडाह” (दमन या ह्रास) के रूप में देखा जा रहा है। यह आरोप लगाया जाता है कि मानक मैथिली के पक्ष में नीतियां और प्रयास क्षेत्रीय,आञ्चालिक विविधता को नजरअंदाज करते हैं और लोक बोलियों को कमतर आंकते हैं।
##समालोचनात्मक विश्लेषण##
●भाषाई साम्राज्यवाद का आरोप: मानक मैथिली को बढ़ावा देने की प्रक्रिया को कुछ आलोचकों ने “भाषाई साम्राज्यवाद” करार दिया है। उनका तर्क है कि एक विशेष बोली (दरभंगा और मधुबनी की बोली) को मानक के रूप में चुनकर अन्य बोलियों जैसे मगही, अंगिका, छिकाछिकी, ठेठ, जोलहा, अंगिका, बज्जिका, पछिमाहा, राड़, थरूवा आदि को हाशिए पर धकेल दिया गया है। यह विवाद भाषा के साथ-साथ क्षेत्रीय पहचान और शक्ति संतुलन से भी जुड़ा है।
●साहित्यिक और शैक्षिक प्रभाव: मानक मैथिली को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के लिए अपनाया गया है, लेकिन लोकमैथिली बोलने वाले समुदायों का कहना है कि यह उनकी बोली को शिक्षा और साहित्य से बाहर कर रहा है। उदाहरण के लिए, मैथिली साहित्य में विद्यापति जैसे कवियों की रचनाएं लोकमैथिली की समृद्धि को दर्शाती हैं, परंतु आधुनिक मानकीकरण ने इसे एकरूपता की ओर ले जाने की कोशिश की है, अन्य भाषिका, बोली, लबज , शैली की सरासर निस्तेज है ।
●सांस्कृतिक हानि: लोकमैथिली में स्थानीय लोकगीत, कहावतें और मौखिक परंपराएं शामिल हैं, जो प्राचीन मिथिला और लोकमैथिली की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग हैं। मानक मैथिली के प्रभुत्व से इन परंपराओं के लुप्त होने का खतरा बढ़ गया है, जैसा कि कई विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चिंता जताती आ रही है।
●सामाजिक असमानता: मानक मैथिली को अपनाने वाले अक्सर शहरी और शिक्षित वर्ग (ब्राहमणवादी बर्चस्प कायम करने वाला) होते हैं, जबकि लोकमैथिली ग्रामीण और कम शिक्षित समुदायों से जुड़ी है, खास करके ब्रामणेत्तर समुदाय/जाति से जुड़ी हुई है। इससे एक सामाजिक विभाजन पैदा हो रहा है, जहां लोकमैथिली को “अशुद्ध” या “गंवई” मानकर तिरस्कृत किया जाता है। यही मैथिली भाषा के दुर्गति और पतन के कारण है । ब्राहमणेत्तर समुदाय मैथिली को अपनत्व ग्रहण करने मे हिचकते है ।
कुछ स्रोत और प्रमाण मे भी लोकमैथिली पर जोड़ दिया गया है । परन्तु इसको नजरअंदाज किया जा रहा है ।
●विकिपीडिया (हिन्दी): मैथिली भाषा के इतिहास और इसके मानकीकरण पर जानकारी उपलब्ध है। यह बताता है कि मैथिली का स्रोत संस्कृत है और यह मागधी परिवार से संबंधित है, लेकिन क्षेत्रीय बोलियों की विविधता को भी स्वीकार करता है।
●अष्टलक्ष्मी सह मैथिली (ashtlakshmisahmaithili.com) : इस स्रोत में मिथिला की लोक संस्कृति और मैथिली भाषा के दीर्घकालीन इतिहास पर चर्चा की गई है। यह लोकमैथिली को मिथिला के जनमानस से जोड़ता है।
●डॉ. राजा राम प्रसाद का लेख: “मैथिली लोक साहित्य का विस्तृत इतिहास” में लोकमैथिली की समृद्ध परंपरा और इसके साहित्यिक योगदान को रेखांकित किया गया है। यह मानक मैथिली के एकाधिकार के खिलाफ एक अप्रत्यक्ष आलोचना प्रस्तुत करता है।
●हिन्दी न्यूज़18 (hindi.news18.com): मैथिली साहित्य की चुनौतियों पर एक लेख में युवा लेखकों की दुविधा और भाषा की प्राणवत्ता को बनाए रखने की बात की गई है, जो लोकमैथिली के संदर्भ में भी प्रासंगिक है।
●निष्कर्षः
मानक मैथिली को बढ़ावा देना भाषा के संरक्षण और विकास के लिए आवश्यक हो सकता है, लेकिन इसके साथ ही लोकमैथिली की विविधता और सांस्कृतिक महत्व को नजरअंदाज करना एक गंभीर भूल होगी। इस मुद्दे का समाधान तभी संभव है जब नीति निर्माता और भाषाविद् दोनों रूपों को समान सम्मान दें और एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाएं, जिसमें लोकमैथिली की बोलियों को भी संरक्षित और प्रोत्साहित किया जाए। अन्यथा, यह प्रक्रिया
प्राचीन मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर के एक बड़े हिस्से को खोने का कारण बन सकती है। (स्रोत : इन्पुट के साथ ग्रोक थ्री बीटा)
@दिनेश_यादव
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