एक दिन

एक दिन
शायद फिर मुलाक़ात होंगी
एक सुकून भरी सांझ में
जहां मेरे संताप का अंत होगा
भूल जाऊँगा हर क्षण
कचोट रहे अलगाव के दंश को
समेट लूँगा अपने वज़ूद में
बासी हो गए रिश्तों की कड़वाहट को
समेट पाऊँगा
शायद फ़िर तुम्हारी
संदली देह को अपने आलिंगन में
भूल जाने की कोशिश में
अपने विगत के मलिन हो गए
पन्नों को,
प्रेम की गुनगुनी धूप दिखा कर
अपनी भावनाओं को
फ़िर जिवित करने की
कोशिश के साथ, सुकून से
जीने मरने की चाहत संजो कर
एक ख़ामोश कहानी को जीते हुए
हिमांशु Kulshrestha