कर्म दिये सम्मान
अभिधा ने जिनको जना, कथ से वो बलवान।
नैसर्गिक जो भी रहे, कर्म दिये सम्मान।।
जैसे पृथ्वी को लखें, जो जग की है मातु ।
सदा पालती भी हमें, भूखी रख निज आत।।
निर्धारित कर लक्ष्य को, स्वप्न दिये आकाश।
कर्म पथिक बनकर चले , होते नहीं निराश।।
जीवन कैसा चाहिए, जल से ले लो ज्ञान।
घुलमिल जा ऐसे जहाँ,मिट जाये पहचान।।
सुबह सबेरे उठ सभी , आओ कर ले योग।
शुद्ध वायु जब भी मिले,काया रहे निरोग।।
जुटे रहे जो साख से, भीत लिए कमजोर।
उड़ा दिया फिर वायु ने, उनको ही झकझोर।।
अग्नि मिटा पहचान को, करती एक समान।
राजा निर्धन जो रहे, राख करे शमशान।।
संजय निराला