टेसू के अग्नि पुष्प

जब वसंत की सुषमा बिखरती,
पवन मधुर रागिनी गुनगुनाती,
धरा के अंचल में सजीव हो उठता,
टेसू, ज्वाला सम दमकता।
निर्जल प्रांतर, तप्त गगन,
पर इसका प्रभामंडल दैदीप्यमान,
अग्नि सम रक्ताभ कांति,
पर स्पर्श में शीतलता अनंत।
सूर्य किरणों से आभायुक्त,
पर ताप में अडिग, अविनीत,
मंदिर दीप की लो ज्योतिर्मय,
शाश्वत, नश्वरता से परे।
गगन के नभ में रंग समेटे,
धूल बन उड़ता, फाग में बहता,
होली की मादक मस्ती में,
इंद्रधनुषी कल्पनाएँ गढ़ता।
बालक नाचें इसके सान्निध्य में,
धरा पर रचें रंग-चित्र नवीन,
गीतों में गुंजित हो जाता,
कवि की कलम में स्वयं समाता।
चाहे काल का प्रवाह बहे,
या पतझड़ इसे विलीन करे,
मन-मंदिर में इसका दीप,
अजर-अमर प्रज्वलित रहे।
तो आओ, इसकी छाया तले,
क्षणभर इस लावण्य को देखें,
टेसू की ज्वाला में स्वयं जलें,
और प्रेम की शाश्वतता में बहें।