श्वेत वर्ण के आँचल को, पिचकारियों के रंग से कैसे बचाऊं,

श्वेत वर्ण के आँचल को, पिचकारियों के रंग से कैसे बचाऊं,
जो पड़ जाएँ कुछ छींटें भी, इस दाग को कैसे छुड़ाऊं।
गलियों में छुपती छिपाती, घर की दिशा में कदम बढ़ाऊं,
होली की जब तान सुनूं, किसी कोने में दब जाऊं।
जो मन कोरा है, तो इस तन को रंगों से कैसे मिलाऊँ,
भावविहीन इस हृदय के मोर को, फागुन की लय पर कैसे नचाऊं।
विरह का सागर गहरा जिसके, रुदन तल में मैं गोते लगाऊं,
संवेदनशून्य लहरों की मार में, श्वासों की गति को कैसे चलाऊं।
गुलालों की आंधी है आयी, अब किस किवाड़ से गुहार लगाऊं,
मतवाली इस टोली को, अपना भय कैसे समझाऊं।
रंग से भीगे वस्त्र लिए, अब धरा पर कैसे चल पाऊं,
प्रतिबिंब प्रश्न करे है मुझसे, नजरें अब स्वयं से कैसे मिलाऊँ।
ठहर गया संसार है मेरा, अब घर कैसे जा पाऊं,
कहाँ मिले वो कोरा रंग अब, जिसे मैं फिर चुनर पर चढ़ाऊँ।