यह शहर अंबूजा

( यह लेख 2020 में राजदूतावास में दिये गए मेरे भाषण का हिस्सा है )
दो जनवरी सन् 2000 में जब हमने पहली बार अबूजा में कदम रखा तो यह शहर जो कि नाइजीरिया की राजधानी है , बड़ा शांत और सोया सोया सा था । आरम्भ में यदि आप भारत से आए हैं तो लगता है जैसे किसी हलचल की कमी है यहां , परंतु कुछ ही दिनों में मुझे लगा कि , अरे भाई, ज़िंदगी तो शांति में ही है । दूसरी बात आरंभ में जो हुई वह यह थी कि पूरा समय गृह सहायक की सेवाएँ उपलब्ध होने के कारण बहुत समय मिलने लगा । आरंभ में यह समय एक समस्या बन कर आया ,परन्तु कुछ दिनों में मुझे विचार आया कि मनुष्य का जीवन भी तो समयबद्ध है , इस वर्ष से उस वर्ष के बीच में और जो कुछ करना है , वह इसी समय के बीच में ही करना है, और यदि मैं इस समय का प्रयोग करना नहीं जानती तो अब तक की मेरी शिक्षा व्यर्थ है ।एक तरह से मेरा पहली बार अपने आप से परिचय हुआ और इस शहर को मैं धन्यवाद देना चाहती हूँ , जिसने मुझे मेरे योग्य बनाया ।
जब हम यहाँ आए थे तो हमारे साथ आए थे हमारे चौदह वर्षीय पुत्र और ग्यारह वर्षीय पुत्री । उनके लिए कोई स्कूल नहीं थे , पुस्तकालय तो दूर , किताबों की कोई दुकान भी नहीं थी , इंटरनेट नहीं था ,मित्र बनाने के कोई उपाय नहीं थे , तो प्रश्न था उनकी शिक्षा और भविष्य का ! मेरा और मेरे पति का यह मानना था कि बच्चों को कम से कम अट्ठारह वर्ष की आयु तक अपने परिवार में रहना चाहिए, यही वह समय है जब उनके तन तथा मन , दोनों को पौष्टिक आहार की आवश्यकता है । स्कूली शिक्षा का अपना स्थान है , परंतु इस समय माता-पिता की शिक्षा का स्थान भी कुछ कम नहीं । हमने उन्हें होम स्कूलिंग कराने का निर्णय किया । अब प्रश्न उठा आख़िर शिक्षा है क्या, हमारे विचार से शिक्षा अब तक जो भी मानव समाज ने समझा है उसे धीरे-धीरे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना है , इसके लिए हमने यहाँ रहने वाले अपने सभी मित्रों को अपना गुरु बना लिया । कोई कीट्स से परिचित था तो कोई एडम स्मिथ से , कोई पेंट ब्रश चलाना जानता था तो कोई रवींद्र संगीत, हमने पाया शिक्षा किसी स्कूल की मोहताज नहीं , वह हमारे आसपास बिखरी है , किसी न किसी अर्थ में प्रत्येक मनुष्य दूसरे का गुरु है , आवश्यकता है विनम्रता की और बच्चे की उत्सुकता को बनाए रखने की ।
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न था बच्चों को विदेश में रहकर अपनी पहचान देना । हमने जाना सभी अपरिचितों के लिए हम पहले भारतीय हैं , और उस भारतीयता को ढूँढने के लिए हमने भारतीयता सीखनी आरंभ की । भारत की भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, खगोल, राजनीति, न्याय शास्त्र, दर्शन शास्त्र, गणित, मिथक, वेद , उपनिषद, कलायें आदि सब हमारी चर्चाओं का विषय बनने लगे , इस प्रयास ने उनके दृष्टिकोण दिया और आगे चलकर वे जमाने की हवा में बहने से बच गए ।
तीसरा प्रश्न था , बच्चे अपने आपको बृहद समाज का सदस्य कैसे समझें ? इसके लिए हमने उनको गलियों में खेलने की प्रेरणा दी , सबसे बात करने की आज़ादी दी, ताकि उनमें इस गृह का एक भाग होने का भाव जागृत हो सके । यह विषय अंतहीन है और जीवन का प्रवाह भी । संक्षेप में मैं इतना ही कहूँगी भारत की ठोस भूमि से जो बीज हम अपने भीतर लेकर आए थे उसने इन नए रास्तों पर हमें लहलहाते पेड़ दिये ।
सन 2000 में जब हम यहाँ आए थे तो जैसे यह देश गहरी नींद से अँगड़ाई ले रहा था , तब बैंक सुरक्षित नहीं थे , मध्य वर्गीय युवक युवतियाँ अपने आपको ग़रीबी की सीमा रेखा से बचा नहीं पा रहे थे , पारिवारिक जीवन में नारी का स्थान भोग्या का था , पुरुष उसे कभी भी घर से निकाल सकता था , न धर्म उसके साथ था , न क़ानून । उन दिनों मैं जितने भी युवाओं से मिली , सबकी बचपन की यादें माँ की त्रासदी के साय त्रस्त थी । जीवन जैसे मात्र धन और सैक्स के साथ सिमटा था । यहां पर महान साहित्य और कलात्मक रचनाओं के बावजूद आर्थिक और राजनीतिक स्थिति बुर्जवा थी । यह राष्ट्र सशक्त विचारधारा से वंचित था । परंतु पिछले कुछ वर्षों में स्थितियां धीरे-धीरे बदली हैं । प्रजातंत्र, वित्तीय संस्थान, पारिवारिक ढाँचा , सब मज़बूत हुए हैं । और इसीलिए नाइजीरिया के भवबके लिए मैं बहुत आशावान हूँ ।
अंत में मैं बात करना चाहूँगी अपने मित्रों की । अबूजा में बहुत बड़ा अंतरराष्ट्रीय समुदाय रहता आया है ।उनसे मिलकर मुझे लगा हम सब किसी न किसी रूप में अपने देश के राजदूत हैं । लोग हमारे संगीत, दर्शन, आर्थिक उन्नति के बारे में जानना चाहते हैं । उनके समक्ष मुझे अपने देश की समस्याओं के बारे में चर्चा करने में कभी लज्जा अनुभव नहीं हुई, इसका अर्थ यह नहीं कि हमारा इतिहास गौरवमयी नहीं , भविष्य के प्रति हम आश्वस्त नहीं । अपनी समस्याओं से जूझना हमें आता है , इसलिए उनको लेकर स्वयं को दूसरों से कम समझना अर्थहीन है । हमने पाया सामान्य नागरिकों की सभी राष्ट्रों में समस्याएं एक ही हैं — वातावरण, बच्चों का भविष्य, वृद्धावस्था, आर्थिक स्वतंत्रता इत्यादि । जिस वसुधैवं कुटुबकम को उपनिषदों ने सिखाया वह यहाँ आकर सार्थक हो गया । न केवल हम आनुवंशिक रूप से एक हैं , अपितु विचारों और इच्छाओं की भिन्नता भी बहुत ऊपरी है ।
—शशि महाजन