दोहे

कुछ दोहे
घट-घट में वे बस रहे,
मन खोजे चहुॅं ओर।
लीला अद्भुत रच रहे,
मेरे माखन-चोर।।
बूढ़ी होती उॅंगलियाॅं,
थर-थर काॅंपे हाथ।
ऑंखें उनको ढूॅंढतीं,
छोड़ गए जो साथ।।
दुहिता चुनती पथ नया,
कहती किसका कौन?
खौलन मचती पेट में,
मात- पिता बस मौन।।
लम्बा-सूना पथ दिखे,
भीगा ऑंचल-कोर।
ममता हारी स्वार्थ से,
चिंतित आंगन घोर।।
उलझन देती शिष्टता,
सकुचाते संबन्ध।
सम्बन्धो को चीरता,
वैचारिक अनुबन्ध।।
जाने कब बच्चे बने,
आस्तीन के साॅंप।
औचक पा आघात उर,
पिता रहे हैं काॅंप।।
पिता निहारें पुस्तकें,
बात करें चुपचाप।
शून्य ताकती मातु का,
घटता कब संताप?
प्रतिद्वंदी हर ओर हैं,
अपनापन है लुप्त!
प्रेम प्रदर्शन हेतु अब,
कहां समय उपयुक्त!!
आती-जाती हर लहर,
देती जीवन-ज्ञान।
मात-पिता की छाॅंव में,
मिलता हरपल मान।।
बदल रही है चेतना,
बदली युग की रेख।
रख कर तेरे वक्ष पर,
चढ़ते सीढ़ी देख।।
रश्मि ‘लहर’