जान लो, पहचान लो, जनक और जननी से बड़ा कोई वेलेंटाइन नहीं…

सुशील कुमार ‘ नवीन ‘
शुक्रवार से वेलेंटाइन वीक की शुरुआत हो रही है। आज के व्यवसायिक दौर की माने तो ये सात दिन प्रेम की अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा होते हैं। व्यवहारिक दृष्टि इसके विपरीत है। देखा जाए तो प्रेम किसी पहचान का मोहताज नहीं होता है। प्रेम तो वास्तव में अंतर्मन की वो अभिव्यक्ति और अनुभूति है। जो न सुनाई पड़ती है और न दिखाई देती है। वह तो सिर्फ महसूस की जा सकती है। प्रेम कोई बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध वस्तु नहीं है तो फिर इसका व्यवसायीकरण क्यों? क्या प्रेम के लिए एक प्रेमिका का होना आवश्यक है? जिसने हमें जन्म दिया, पाला पोसा बड़ा किया। लड़खड़ाते कदमों को संभाल हमें आगे बढ़ाया। क्या वो प्रेम का अधिकारी नहीं है?
हिंदी के विख्यात साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि यह संसार भी बड़ा प्रपंचमय यंत्र है। वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है। सीधा सा भाव है कि सरलता सदैव धोखा खाती है। यही वजह है कि जो तुमसे ज्यादा प्रेम करता है, उसकी तुम्हें पहचान ही नहीं हो पाती। चार दिन किसी के साथ तफरी क्या कर ली, वहीं जाने जहां हो जाते हैं। इसके लिए माता-पिता , घर-परिवार की इज्जत भी उछालनी पड़ जाए तो भी परवाह नहीं। माई लाइफ माई राइट कहकर झट से पल्ला झाड़ लेते हो। जब इस माई लाइफ का भूत सर से उतर जाता है तो वापसी के लिए इसके सिवाय कोई और जगह नहीं होती। मैं ये नहीं कहता कि संसार में प्रेम की उपयोगिता या महत्ता नहीं है। पर वेलेंटाइन के नाम पर जो भ्रमजाल लगातार पैर पसार रहा है। उस पर चिंतन बहुत जरूरी है।
सबसे पहले जानो कि प्रेम का कोई एक दिन तय नहीं किया जा सकता। जीवन का हर एक क्षण हमें प्रेम और प्रेमालाप करने का अवसर प्रदान करता है। यह कोई उपहारस्वरूपी वस्तु के बदले का मोहताज नहीं होता। यह कभी किसी लालसा को जन्म नहीं देता। यह तो हमें एक ऐसी साधना की राह की ओर अग्रसर करता है जो अथाह है अनन्त है। सुनते रहो! प्रेम कोई समय में बंधने वाली प्रक्रिया नहीं है। यह तो युग युगांतर तक अमरता को प्राप्त होने वाली ऐसी दिव्य और अलौकिक ज्योति है जिसका प्रकाश कभी मंद हो ही नहीं सकता। प्रेम कभी नहीं कहता कि उसे गुलाब चाहिए, उपहार चाहिए। वह तो सिर्फ आत्मीयता चाहता है। जो सिर्फ पवित्र हृदय से मिलती है। आज के समय में आत्मीयता का प्रेम के रूप में कोई महत्व दिखता ही नहीं है।
सुनो! जिसे तुम अट्रैक्शन कहते हो वो कोई अट्रैक्शन नहीं है। वह तो एक अबूझ लालसा है। जो एक के मिलने के बाद भी पूरी नहीं होती। मन भरा तो मन चरा। यहां ये भी जानना जरूरी है कि प्रेम कोई आकर्षण रूपी क्षणिक भावना नहीं है। प्रेम तो हर जन का अस्तित्व है। उनका अनुपम अलौकिक व्यकित्व है। प्रेम को कोई बांध नहीं सकता। क्योंकि प्रेम की कोई सीमा नहीं है। प्रेम तो सीमा का निर्माण करता है। व्यक्ति बदल सकता है पर प्रेम रूपी व्यक्त्तित्व लाख चाहने पर भी नहीं बदलता। यह तो जानते ही होगे कि इंसान का शरीर, मन और व्यवहार बदलते देर नहीं लगाता। पर प्रेम हर व्यक्त्तित्व से परे अपरिवर्तनशील है। प्रेम कोई उत्तेजना नहीं है यह तो निष्काम मन का समर्पण है। प्रेम कोई विचार नहीं यह तो अभिव्यक्ति है। प्रेम कोई दृश्य नहीं यह तो अदृश्यम् है।
जो प्रेम आकर्षण से पैदा होता है। या जो सुख की कामना लिए होता है। वह प्रेम नहीं है। ऐसे प्रेम की कोई लंबी उम्र नहीं होती है। अज्ञानता या सम्मोहन के फलस्वरूप जन्म लेने वाला इस तरह का प्रेम पानी के बुलबुले के समान क्षणिकमात्र होता है। इस प्रकार के प्रेम से मोह भी जल्द भंग हो जाता है। यह दीपक की लौ की तरह झर झर करने लगता है। और अंत में बुझ जाता है। मन में अनावश्यक भय, अनिश्चिता का माहौल, असुरक्षा और उदासी को बढ़ाने का कार्य करता है। जिस प्रेम की प्राप्ति सुख- सुविधा, धन दौलत, इच्छापूर्ति भाव के कारण होती है। वह आनंददायी नहीं निरुत्साही होता है।
बात संभवतः तुम्हे बुरी लगे। पर जिस प्रेम की पराकाष्ठा की उम्मीद इस साप्ताहिक प्रेमोत्सव के दौरान में जाती है। वह प्रेम नहीं वासना का जाल है। प्रेम और वासना का अंतर जानना है तो यह भी सुनो! प्रेम और वासना में वही अंतर है जो कंचन और कांच में है। प्रेम अभिराम (सुंदर) तो हो सकता है पर अविराम(लगातार) नहीं। प्रेम अवलंब (सहारा) तो हो सकता है पर अविलंब (झट से) नहीं। प्रेम का परिणाम(फल)तो हो सकता है पर परिमाण नहीं। इसलिए किसी के बाहरी स्वरूप को देखकर उसके बारे में जल्दबाजी में सोचना या उसके व्यक्तित्व का आकलन करना उपयुक्त नहीं है। क्योंकि कई बार जो दिखता है वो होता नहीं है।
अंते, हे जानकी! रोज(गुलाब) देना है तो अपने जनक(पिता)को दो। जिसकी बदौलत तुम्हारा संसार में आगमन हुआ। हे मनोहर! तुम्हे चॉकलेट ही देनी है तो अपनी मनोहरा जननी को दो। जिसने तुम्हें नौ माह पेट में रखा। लाख कष्ट सहे पर उफ तक नहीं की। यहां तक कि तुम्हें जन्म देते समय दूसरा जन्म भी उसे लेना पड़ा। प्रपोज करने का अवसर तो किसी और को देने की सोचना भी नहीं। प्रपोज के बहाने भेड़िए खाल नोचने को तैयार बैठे है। ऐसे में खुद से खुद को कामयाब होने का प्रपोज करो।
टेडी देना है तो स्वयं से अनुपम कोई नहीं हो सकता। क्योंकि नटखट तो तुम हो ही। कब रूठ जाओ, कब मन जाओ पता ही नहीं चलता। प्रोमिस अपनी बहन से उसकी सदा संभाल का करो। ताकि कोई आवारा वेलेंटाइन के बहाने उसकी अस्मिता से खिलवाड़ न कर सके। हग उस भाई को करो जो ढाल की तरह हर समय मौजूद हो। किस करने का वास्तविक हक तो माता-पिता को है। दिखावे की राह छोड़ कामयाबी की राह पकड़ो ताकि अपने आप को गौरवान्वित मान तुम्हारा ललाट चूम सके।
लेखक;
सुशील कुमार ‘नवीन‘, हिसार
96717 26237
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार है। दो बार अकादमी सम्मान से भी सम्मानित हैं।