कोंपल
गीतिका
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ठूंठ से कोंपल निकलती जा रही।
बन यशस्वी खूब बढ़ती जा रही।
हार को झुठला रही है शान से।
है बहुत जीवंत दिखती जा रही।
देखता जो भी इसे आश्चर्य से।
मुस्कुराती खूब खिलती जा रही।
ज़िन्दगी रुकती नहीं झुकती न जब।
सीढ़ियां हर बार चढ़ती जा रही।
वृक्ष बिन होती प्रदूषित है हवा।
क्यों मगर संख्या सिमटती जा रही।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य