हररोज इक हकीम की तलाश में निकल आता हूँ घर से, जैसे किसी काम

हररोज इक हकीम की तलाश में निकल आता हूँ घर से, जैसे किसी काम की तलाश में आया हूँ|
मगर ना तो मर्ज ही मिलता है ना हकीम सिवाय इल्म के, शाम ढ़लते ही पंछी की भांति मुझे भी उसी घोंसले में जाना होता है जहाँ से निकला था |
~ जितेन्द्र कुमार “सरकार”