नज़्म
मेरे हमनफ़स मेरे हमनवाँ
कभी दूर तुमसे जो हो गयी
तेरे साथ चलते हुए फिर यूँ ही
मैं कहीं पर तुमसे जो खो गयी…
गर ज़िन्दगी ये रही ही नहीं
मैं हूँ जानती ये सही तो नहीं
तेरे साथ गर न मैं रह सकी
गर मौत मुझको कहीं ले गयी….
जो सुन न सको तुम पुकार मेरी
जो दिख न सकूँ तुमको मैं रूबरू
जो न छू सको मुझको चाहकर भी तुम
जो पा न सको ख़बर भी मेरी…
न होना उदास मुझे सोचके
न चेहरों में मुझको कहीं ढूंढना
जहाँ मिलते थे कभी हम सनम
वहाँ तुम न मेरी राह देखना…
दोगे कभी जब मुझे तुम सदा
तो क्या कि मेरा ख़त ना आयेगा
वो जो प्यार के हैं हज़ारों ही गीत
कोई नग़्मा उनमें मुझे गायेगा…
तेरी आँखों को न देखूँ मैं नम
हों न कभी भी तेरी खुशियाँ कम
क्या होगी बढ़के कज़ा कोई भी
कभी दर्द में जो दिखा तू सनम…
कभी मुझको ढूंढे तेरी ये नज़र
तो मिलूं तुझको मैं वहीं बेख़बर
जहाँ तुझको पाके मैं गुम हुई
मेरा दिल ख़ुशी से झूमा मगर
मेरी आँख ये फिर भी नम हुई…
तो क्या कि तेरे इन हाथों में
कभी रह न पाए मेरा हाथ अब
कभी भी मगर तू ना सोचना
मेरे हमसफ़र मैं नहीं पास अब ..
मैं मिलूंगी तुझको हर इक घड़ी
हर इक जगह हर इक मोड़ पर
मेरे हमनशीं मेरे हमनवाँ
मैं जा न सकूँगी तुझे छोड़ कर…
तेरी हर हँसी में हँसूगीं मैं ही
तेरे दिल में यूँ ही बसूँगीं मैं ही
कभी देखेगा जो तू आईना
तुझे तुझमें ही तो दिखूंगीं मैं ही ..
अ मेरे हमसफ़र आज वादा ये कर
मैं रहूँ ना रहूँ कुछ कहूँ ना कहूँ
अपने गीतों को तू यूँ ही दोहरायेगा
मैं आऊंगी फिर से तेरे ख़्वाबों में
तू सोचेगा जब भी मुझे पायेगा…
मुझे सोच लेगा जो तू इक दफ़ा
तो फिर पाने को रहेगा भी क्या
जो ज़िंदा रहे यूँ तेरी साँसों में
भला मौत से वो मरेगा भी क्या
सुरेखा कादियान ‘सृजना’
14- 01- 2025