संस्कृति या विकृति (Culture or Distortion)
शाब्दिक रूप से संस्कृति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत शब्द से हुई है। संस्कृत का अर्थ है परिष्कृत । अतः संस्कृति का संबंध ऐसे तत्त्वों से है जो व्यक्ति का परिष्कार कर सकें । प्रकृत मानव तो पशु की तरह है । उसके जीवन में न कोई आदर्श है तथा न कोई व्यवस्था ही । संस्कृति ही मानव को पशु के तल से उठाकर उसका विकास करती है । यदि संस्कृति ऐसा न करे या संस्कृति के नाम पर मनुष्य को पशु के तल पर जकड़कर रखने का घिनौना षड्यंत्र रखा जाता है तो उसे संस्कृति नहीं विकृति या पतन ही कहेंगे। इस समय हरियाणा प्रदेश में रागनियों, कम्पीटीशनों, ड्रामों या जागरणों के नाम पर एक ऐसी ही घृणित एवं दुषित तथा पतित प्रवृत्ति चल रही है। हर रोज कहीं न कहीं रागनियों के कम्पीटीशन, ड्रामें व जागरण होते रहते हैं । इनमें सारी मर्यादाओं, शीलता व अच्छाईयों को भुलाकर फिल्मी धुनों पर अश्लील गानों को बड़े भोंडे ढंग से प्रस्तुत किया जाता है तथा इसे हरियाणवी संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग कहा जाता है । जब से फिल्मों का प्रचलन बढ़ा है तथा रागनियों के कम्पीटीशन ने जोर पकड़ा है तो यह सब कुछ यानी रागनी, गीतों व भजनों को फिल्मी धुनों पर गाकर प्रस्तुत करने का एक विकृत, दुषित एवं भ्रष्ट ढंग चल पड़ा है । कलाकारों का इन्हें मंच से प्रस्तुत करने का ढंग इतना अश्लील व कामुक होता है कि ब्ल्यू फिल्में भी इनके सामने पीछे छूट जाती हैं । अपने आपको संस्कृति, कला व प्राचीन धरोहारों का रक्षक बताने वाले बड़े-बड़े गायक, कलाकार, लेखक, साहित्यकार, समाजशास्त्री एवं साधु व सुधारक भी इन्हीं मंचों पर बैठे हुए होते हैं तथा संस्कृति के विनाश को देखते रहते हैं। शायद या तो इंहोंने स्वयं अपनी वासना का दमन किया हुआ होता है या रूपयों के लोभ से ये संस्कृति को अपमानित, दुषित व नष्ट होते देखकर भी चुप ही रहते हैं । दस-दस हजार लोगों की मौजूदगी में, जो हर वर्ग से संबंधित होते हैं संस्कृति से यह बलात्कार चलता रहता है । न तो संस्कृति के ठेकेदार कुछ कहते हैं न सामान्य जनता कुछ विरोध करती है । यदि कोई बीच में कुछ कह भी दे तो कलाकार यही उत्तर देते हैं कि हरियाणवीं संस्कृति यही है । यह सब शोचनीय व विचारणीय है ।
इसी तरह की विकृति हरियाणवीं सांग में सांग सम्राट पं. लख्मीचंद लाए थे । उन्होंने शुरू-शुरू में सांगों को अश्लीलता, श्रृंगारिकता, वासना व कामुकता से लाद दिया था । उस समय तो बाजे भगत व आर्य समाज के प्रभाव से पं. लखमीचंद ने अश्लील गाना छोड़कर धार्मिक व शास्त्रीय गाना शुरू कर दिया था । लेकिन इस समय ऐसा कुछ भी सुधार होता नजर नहीं आता, क्योंकि संस्कृति के रक्षकों के सामने ही संस्कृति को नष्ट किया जाता हो तो संस्कृति को बचाने का कोई तरीका बाकी नहीं रह जाता । ये संस्कृति के ठेकेदार, सुधारक एवं बड़े-बड़े लेखक पुस्तकों में तो कुछ लिखते हैं तथा करते उसके विपरीत हैं । लेकिन दोनों तरह से ये सरकार व जनता से रूपया, वैभव एवं सम्मान लुटते हैं।
टी. वी. व मोबाईल ने चरित्र व आचरण के पतन के अनेक रास्ते खोल दिए हैं । धार्मिक सामाजिक या देशभक्ति संबंधी कोई कुछ भी सुनना नहीं चाहता । सबकी मांग अश्लील गानों की होती है । हरियाणवी संस्कृति में आदर्शों, संयम, सम्मान व गौरव का शोर मचाने वाले हमारे बड़े-बुजूर्ग भी अश्लील, कामुक व वासनामय गीत सुनने हेतु घंटों बैठे रहते हैं । शराब के नशे में झूम-झूमकर कलाकारों को रूपये देते हैं तथा फिल्मी धुनों पर गानों की मांग करते हैं । यह सब क्यों हो रहा है? इस सब हेतु कौन जिम्मेवार है? क्या यह सब चलते रहना चाहिए या इसमें सुधार होना चाहिए? यह सब विचारणीय व चिंतनीय है । ये गायक व कलाकार मानव की सद्प्रवृत्ति का शोषण करके लाखों कमा रहे हैं । हरियाणवी संस्कृति नष्ट हो रही है । हरियाणवी संस्कृति के इस पतन से शायद ही कोई चिंतित होता हो । आचरण के पतन का रोना तो सब चाहते हैं परंतु इस हेतु रचनात्मक प्रयास करने को कोई आगे नहीं आ रहा है । हमारे कानून भी उल्टी बातों का समर्थन अधिक करते है। तथा रचनात्मक कार्यों की उपेक्षा करते हैं ।
आचार्य शीलक राम