कृष्ण सुदामा मिलन
भार्या के आग्रह के आगे,
नतमस्तक हुए विप्र सुदामा
तंडुल पोटली दबा कांख में ,
नंगे पाँव चले द्वारिका ग्रामा
पहुँचे जैसे सखा द्वार पर,
मित्र कृष्ण को खबर भेजवाये
सुन सन्देश सुदामा आगमन का
तोरण द्वार तक प्रभु खुद आए।
धोने लगे युगल चरण सुदामा के,
प्रेम अश्रु से होकर अति अधीर।
सहज भाव से पूछ बैठे कन्हैया
“उस दिन क्यों किया अपराध गंभीर?”
सुनकर वचन मधुसूदन के,
दुविधा में पड़ गए विप्र सुदामा।
हृदय में धैर्य धारण कर,
बोले, “ऐसा न सोचो घनश्यामा।
चलो,उस दिन का सच बतलाकर
जिज्ञासा का समाधान करता हूँ।
समिधा लाते दिन क्यों खाया चना,
इसका रहस्य को आज खोलता हूँ।
वह चना नहीं था साधारण सखे
था एक ब्राह्मणी-क्रोध से अभिशप्त
जो खाता, उसका धन-संपदा,
सबकुछ हो जाता स्वप्न-सा विलुप्त ।
यदि यह रहस्य जानती गुरुमाता
तो नहीं देती वैसा चना कभी मुझे
और यदि उसे दे देता मित्र तुझको
तो दुनिया क्या माफ़ कर पाती मुझे ?
उस दिन तुम तो वृक्ष चढ़े थे,
समिधा चुनने में व्यस्त थे तुम ।
बैठकर पेड़ के नीचे बहुत देर तक
करता रहा केवल मैं उधेडबुन |
सोचा,यदि चना दिया तुझे तो
पूरी सृष्टि निर्धन हो जायेगी
लगेगी कलंक टीका जो मुझपर
वह कभी नहीं मिट पायेगी ।
जगती के लिए किया त्याग यह
अपने लिए सह ली दरिद्रता अपावन ।
आज उसी कर्म के कारण,
यह मित्र-मिलन हुआ है अति पावन।
सुन वचन सुदामा के गहरे,
नंदलाल के लोचन भर आए।
नि:शब्द हुए केशव क्षण भर,
फिर बोले वचन व्याकुल, भर्राए ।
“मित्र तुम्हारा त्याग महान है
उसका ऋण मैं चुका न पाऊंगा
बाल्यकाल के उस उपकार का
मूल्य पूरा मैं कर न पाऊंगा |
क्षमा मांगते बोले योगेश्वर
“सखे! मुझ पर करो कृपा महान
ले लो त्रिभुवन की सारी सम्पदा
पर मुझे करो तुम क्षमादान |
क्षमा की कोई बात नहीं, मित्र
यह तो विरंची की करनी है
मुझे नहीं कोई लोभ और लालच
तुम मिले मेरे लिए वही तरणी है |
घर पहुँचे जब विप्र सुदामा,
दृश्य देख वहां का रह गए दंग।
झोपड़ी जहाँ खडी थी उनकी,
वहाँ मिला उन्हें महल उतुंग|