समावेशी शिक्षा
21वीं सदी समावेशन का दौर है। समावेशी का अर्थ है- किसी भी व्यक्ति या समूह को बाहर नहीं छोड़ना। अर्थात सबको शामिल करना।
समावेशी शिक्षा का अर्थ है कि विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को भी सामान्य बच्चों के साथ पूरे समय शिक्षित करना। अन्य अर्थों में, समावेशी शिक्षा सभी पृष्ठभूमि के छात्रों को एक साथ सीखने और बढ़ने का अवसर देती है, जिससे सभी को लाभ हो। यह एक तरह से विविधताओं को स्वीकार करने की मनोवृत्ति है, जिससे कि वंचित वर्ग को मुख्य धारा से जोड़ा जा सके और वह समाज की एक इकाई के रूप में राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकें।
दरअसल कक्षा एक छोटा सा समाज की तरह होती है, जहाँ सभी प्रकार के बच्चे होते हैं। बुद्धिमान एवं प्रतिभाशाली से लेकर औसत और फिर शारीरिक एवं मानसिक रूप से अक्षम तक। यदि हम एक ही प्रकार के दृष्टिकोण (विशेषीकृत प्रणाली) को अपनाएँ तो कक्षा का एक बड़ा भाग वंचित रहकर विकास की दौड़ में पिछड़ जाएगा।
समावेशी शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक बच्चे की आवश्यकता को बाल केन्द्रित विधियों द्वारा विकसित करना है, जिससे कि वे विद्यालय, घर-परिवार और समाज में बेहतर सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम हो सकें। समावेशी शिक्षा समता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय एवं व्यक्ति की गरिमा को प्राप्य मूल्यों के निरूपण के रूप में भारतीय संविधान की मूल भावना को प्रकाशित करती है।
समावेशी शिक्षा के मुख्य सिद्धान्त हैं – पहुँच, समानता, भागीदारी, सशक्तिकरण और प्रासंगिकता। शिक्षा का अधिकार (RTE) भी लिंग और सामाजिक श्रेणी पर ध्यान दिए बिना सभी विद्यार्थियों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने के इस निर्णय को अधिक मजबूत और सुदृढ आधार प्रदान करता है। विभिन्न शोध के निष्कर्षों से भी यह पता चलता है कि शिक्षक अपने कौशल, रवैये और प्रोत्साहन द्वारा सुविधा विहीन एवं अधिकार विहीन समुदाय के बच्चों की संलिप्तता, प्रतियोगिता और उपलब्धि को उल्लेखनीय ढंग से बढ़ा सकते हैं।
निष्कर्षतः समावेशन, अपवंचन (उपेक्षा/उपेक्षित) के विरुद्ध है। ‘सबका साथ सबका विकास’ इसका मूल-मंत्र है। समावेशन के गुण की वजह से ही आज समावेशी कार्यक्रमों की सब जगह धूम है, क्योंकि यह समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व और न्याय के सिद्धान्तों के सर्वथा अनुकूल है।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
भारत गौरव सम्मान प्राप्त
हरफनमौला साहित्य लेखक।