भगवान् बुद्ध वेद विरोधी तथा नास्तिक नहीं थे (Lord Buddha was not anti-Veda or an Atheist)
कुरुक्षेत्र की भूमि सृष्टि-उत्पत्ति के प्रारम्भ से ही धर्म, अध्यात्म, योग, संस्कृति, आचरण एवं जीवन-मूल्यों की स्थापना व प्रचार-प्रसार हेतु महत्त्वपूर्ण रही है । धर्म-अधर्म के निर्णय हेतु महाभारत नाम का विश्वयुद्ध इसी भूमि पर हुआ था तथा उससे निकली एक अद्भूत एवं अनुपम विश्व साहित्य की कृति ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ । पूर्णावतार भगवान् श्रीकृष्ण ने विषाद में फंसे अर्जुन को एक ऐसा पथ आज से 5000 वर्ष पूर्व बतलाया जिसकी उपादेयता व प्रासंगिकता आज भी यथावत् है । अनिर्णय के भंवर में उलझे हुए तथा सामाजिक रूप से उचित-अनुचित व शुभ-अशुभ का निर्णय करके ‘स्व’ की यात्रा करवाने हेतु भगवान् श्रीकृष्ण का गीतोपदेश समकालीन युग हेतु उतना ही जरूरी एवं पथ-प्रदर्शक है, जितना कि द्वापर युग व कलियुग के संधिकाल में था।
भगवान् बुद्ध के संबंध में जिस प्रकार से यह प्रचारित कर दिया गया कि वे वेद व वैदिक धर्म के कट्टर विरोधी तथा नास्तिक थे – इन सब पर विचार करके दर्शन-शास्त्र, धर्म व बौद्ध-दर्शन के विद्वानों की सोच पर तरस आता है । कुछ भारतीय विद्वानों तथा पश्चिम के भारतीय संस्कृति के प्रति पूर्वाग्रह व पक्षपात रखने वाले विद्वानों ने अपनी दुकानें चमकाने व आजीविका चलाने हेतु कई शदी पूर्व ही भगवान् बुद्ध के संबंध में अनाप-शनाप लिखना शुरू कर दिया था । सर्वप्रथम यह कार्य अपने आपको भगवान् बुद्ध का अनुयायी कहने वालों ने ही किया था, पाश्चात्य विद्वानों ने तो यह कार्य अभी लगभग दो सदी पूर्व लार्ड मेकाले के अंग्रेजी शासनकाल से ही शुरू किया गया था । इसके पश्चात् तो बौद्ध संप्रदाय व इसकी शिक्षाओं के संबंध में अटपटे सिद्धान्तों की पुष्टि की जाने लगी तथा जिस सनातन आर्य वैदिक धर्म में आई विकृतियों को दूर करने हेतु इसका उद्भव हुआ था- उसी का धुर विरोधी इसको सिद्ध किया जाने लगा । चिंतकों, विद्वानों, मनीषियों, दार्शनिकों व विचारकों के भी अपने पूर्वाग्रह होते हैं । अंतर सिर्फ इतना है कि जहाँ पर साधारणजन के पूर्वाग्रह मामूली होते हैं, वहीं पर महान् व्यक्तियों के पूर्वाग्रह विशिष्ट एवं बड़े-बड़े होते हैं । साधारणजन के पूर्वाग्रहों पर कौन चिंतन करता है, जबकि महान चिंतक या दार्शनिक कहे जाने वाले व्यक्तियों के पूर्वाग्रहों को सत्य मानकर बड़े-बड़े सम्प्रदायों की अट्टालिकाएं खड़ी कर दी जाती हैं । बाद के चिंतक इन्हीं को सत्य मानकर तर्कों का जाल बुन देते हैं ।
भगवान् बुद्ध स्वयं वेदों के प्रशंसक थे एवं आर्य वैदिक संस्कृति के वट वृक्ष की छत्रछाया में ही वे पले-बढ़े एवं देहावसान को प्राप्त हुए थे । उन्होंने कभी भी ऐसा नहीं सोचा होगा कि जो कुछ वे कह रहे हैं इसका इस बुरी तरह से अनर्थ किया जाएगा कि आस्तिक-नास्तिक के भंवर में समस्त धरा के लोगों को उनका नाम लेकर फंसा दिया जाएगा । वे स्वयं वैदिक सनातन हिन्दू धर्म में आई विकृतियों से चिंतित थे तथा इन्हीं को दूर करने हेतु उन्होंने राजसी ठाठ-बाट छोड़कर आजीवन कड़ी मेहनत की । उनका उद्देश्य मात्र अपने धर्म में आई विकृतियों को दूर करना था, अन्य कुछ नहीं । हीनयान, महायान, स्थविरवाद, महासांघिक, वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, शून्यवाद व स्वतंत्रविज्ञानवाद जैसे दार्शनिकों सिद्धान्तों के तर्कजाल में उनकी मूल देशनाएं इस बुरी तरह से लुप्त हो जाएंगी- उन्होंने शायद ही कभी ऐसा सोचा होगा । लेकिन यह सब तो उनके साथ हुआ है। संसार में हर महान् पुरुष की शिक्षाओं का उनके अनुयायी इसी तरह से अनर्थ करते हैं तथा अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु उनका दुरुपयोग करते हैं । भगवान् बुद्ध के जन्म के चार सदी पश्चात् तक भी उनकी मूल शिक्षाएं ही लोगों को प्राप्त होती रही थी । 400 वर्ष पश्चात् तक भी आज भगवान् बुद्ध के नाम से प्रचारित क्षणभगवाद, शून्यवाद, अनात्मवाद व निरीश्वरवाद आदि सिद्धान्त इस रूप में ज्ञात तक नहीं थे। इस तरह के विचार वैसे वैदिक सनातन साहित्य में अति प्राचीन काल से ही विद्यमान रहे हैं । विचारकों ने इन सिद्धान्तों व विचारों के संबंध में शास्त्रार्थ व वाद-विवाद आदि भी खूब किए हैं, लेकिन भगवान् बुद्ध द्वारा ही इन सिद्धान्तों या मतों का उद्भव मानना अज्ञानता व मूढ़ता ही कहा जाएगा । विचार, तर्क, चिंतन, शास्त्रार्थ व वाद-विवाद की परम्परा भारत में सनातन से है । इसी परंपरा का एक हिस्सा भगवान् बुद्ध थे । भगवान् बुद्ध की तरह आधुनिक काल में स्वामी दयानंद सरस्वती एक प्रसिद्ध तार्किक, दार्शनिक व समाज सुधारक हुए हैं । उनका उद्देश्य आर्य वैदिक हिन्दू सभ्यता व संस्कृति की रक्षा करना था । उनके इस प्रयास को कुछ अज्ञानी सनातनी हिन्दू कहे जाने वाले लोगों ने इस्लाम व ईसाईयत का कुचक्र सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया । जिस व्यक्ति का जीवन ही भारत व भारतीयता हेतु सदैव समर्पित रहा था, उनके संबंध में इस तरह का घृणित दुष्प्रचार धर्म व योग को अपनी आजीविका का साधन समझने वाले लोगों ने ही किया था । ठीक इसी तरह की मूढ़ता व दुष्ट प्रवृत्ति का परिचय भगवान् बुद्ध के साथ उनके अनुयायियों ने दिया । मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने जरूर अपनी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने हेतु ग्रन्थों का सृजन किया होगा, लेकिन उनके देहावसान के दो सदी पश्चात् उनके तथाकथित केवल आजीविका के लोभ व प्रसिद्धि के भूखे अंध-श्रद्धालुओं ने उनकेा नष्ट कर दिया होगा । भगवान् बुद्ध पढ़े-लिखे थे, वे किन्हीं पुस्तकों की रचना नहीं करते – ऐसा कैसे हो सकता है। महापुरुषों के साथ उनके अंध-शिष्यों द्वारा ऐसा दुव्र्यवहार अकसर होता आया है । शाब्दिक वाद-विवाद की बजाय अनुभव या अनुभूति पर जोर देना, अव्याकृत प्रश्नों पर मौन धारण करना आदि के संबंध में तो महत्त्वपूर्ण जानकारियां कोई विवेकी जन ही बौद्ध-ग्रन्थों के अध्ययन से निकाल सकता है । इसके साथ उनके अनुयायियों द्वारा उनके नाम पर शुरू किए गए विभिन्न सिद्धान्तों यथा क्षणभंगवाद, अनात्मवाद, निरीश्वरवाद, शून्यवाद आदि का महत्त्वपूर्ण विवरण व ये सब विभिन्न बौद्ध दार्शनिकों ने किस स्वार्थ व पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर शुरू किए थे तथा समकालीन युग में उनके व उनके अनुयायियों के नैतिक, धार्मिक व दार्शनिक विचारों की क्या उपादेयता व प्रासंगिकता हो सकती है – इसके संबंध में काफी खोज करने की जरूरत है । ब्राह्मण व श्रमण परम्पराओं का नाम लेकर शिक्षा संस्थानों के उच्च कोटि के शिक्षक व दार्शनिक काफी भ्रम पहले ही फैला चुके हैं । ज्ञात संसार में भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का सर्वाधिक दुरुप्रयोग हुआ है । उनके अपने अनुयायियों ने ही उनकी शिक्षाओं की जो मनमानी व्याख्याएं करके पूरे बुद्ध के समाज सुधार आन्दोलन को बदनाम किया है – उसकी मिसाल समस्त धरा पर अनुपलब्ध है ।
आचार्य शीलक राम
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
अध्यक्ष
आचार्य अकादमी चुलियाणा, रोहतक (हरियाणा)