घर
घर
घर में होती है
चार दीवारी, एक छत,
छत पर पंखा,
दीवार पर रोशनदान,
और टंगा हुआ एक आइना—
जो हर रोज़ मुझे घूरता है,
जैसे पूछ रहा हो,
“क्या हाल बना लिया है?”
मैं भी घूरता हूँ उसे…
पर उसमें मैं नहीं दिखता।
दिखते हैं—
कुछ अधूरे सपने,
थोड़ा-सा मौन,
दो-चार टन बेचैनी,
और काले साये जो शायद
बिजली के बिल से भी पुराने हैं।
इतना देख ही रहा था
कि अचानक ख्याल आया—
अरे! ये सब छोड़,
कल सोमवार है…
और सोमवार को
सपने नहीं,
बस दफ्तर जाता है आदमी।