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6 Aug 2024 · 1 min read

गज़ल

बेगुनाही खड़ी हाथ मलती रही।
फैसले में सजा कलमें लिखती रही।।

खून पानी बना है जरा देखिए।
हंसता वह रहा वो सिसकती रही।।

आदमी आदमी ना रहा अब यहां।
आदतें रोज उसकी बदलती रही।।

इल्म का दायरा कागजों में बढ़ा।
शम्मा ही रोशनी को निगलती रही।।

बंद आंखें किये रात भर सब चले।
जुगनूओं की कतारें निकलती रही।।

बेखबर रहनुमा इस कदर कुछ हुआ।
रोज बा रोज बस्ती उजड़ती रही।।

रात “पूनम” की गुजरी है कुछ इस तरह।
शम्मा जलती रही और पिघलती रही।।

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