"बेखबर हम और नादान तुम " अध्याय -3 "मन और मस्तिष्क का अंतरद्वंद"
*बारिश सी बूंदों सी है प्रेम कहानी*
हुईं मानवीय संवेदनाएं विनष्ट
कहते हो इश्क़ में कुछ पाया नहीं।
"हां, गिरके नई शुरुआत चाहता हूँ ll
पूरा दिन जद्दोजहद में गुजार देता हूं मैं
दुनिया को पता है कि हम कुंवारे हैं,
विवश मन
डॉ राजेंद्र सिंह स्वच्छंद
मैं रंग बन के बहारों में बिखर जाऊंगी
प्रेम हो जाए जिससे है भाता वही।
कुछ पल साथ में आओ हम तुम बिता लें
ग़ज़ल - बड़े लोगों की आदत है!
परिवार का एक मेंबर कांग्रेस में रहता है
प्रेम पगडंडी कंटीली फिर जीवन कलरव है।
आजकल भरी महफ़िल में सूना सूना लगता है,
" *लम्हों में सिमटी जिंदगी* ""
नन्हे-मुन्ने हाथों में, कागज की नाव ही बचपन था ।