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28 May 2024 · 4 min read

समाज का डर

लगभग नित्य मैं शाम को कार्यालय के उपरांत काशी के प्राचीन घंटों पर विचरण करता रहा था। प्रारम्भ मैं चेतसिंह घाट की सीढ़ियों पर चित्रकार प्यारे लाल के पास बैठ उनके बनाये गए नए चित्रों पर चर्चा करता, घाटों की जीवंतता को निहारता, घाट पर चल रहे क्रियाकलापों, सामाजिक व राजनैतिक चर्चाओं से दो चार होता। इसी बीच , ‘डाक्टर साहब- आवत हई ‘ की आवाज लगाते हुए नीबू की चाय लेकर रामू आ जाता तो चाय पर चर्चा प्रारम्भ हो जाती। दो चार शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्त्ता टाइप के छुटभैये नेता भी आ जाते और उस चर्चा को आगे बढ़ाते। चर्चा को शीर्ष पर छोड़ फिर मेरी यात्रा कभी कभी वहां से अस्सी घाट की ओर, कभी -कभी गुलरिया घाट से होते हुए हनुमान घाट पुनः हरिश्चंद्र घाट से होते हुए केदार घाट पर भगवान केदारेश्वर के दर्शन और पुनः एक दूध की चाय से समाप्त होती । ऐसा प्रायः नित्य ही होता। कभी इससे ऊब कर किसी उस पार जाती नाव का सहचर बन उस पार गीली रेत पर बैठ अस्तांचल सूर्य को अपलक निहारता। बस जीवन कुछ ऐसे ही चल रहा था।
एक दिन उसी क्रम में मैं केदार घाट से दर्शन कर त्रिपुण्ड मस्तक पर लगाये लौट रहा था। उस दिन शाम थोड़ी ज्यादा ढल चुकी थी। वस्तुतः केदार घाट के सीढ़ियों पर गाँधी पर हो रही ऐसी ही एक चर्चा में मैं भी शामिल हो गया था, (जिसका विवरण अगले लेख में मिलेगा)। ठण्ड प्रारम्भ हो चुकी थी, हल्का सिलावन लगने लगा था इसलिए कदम तेजी से अपने गंतव्य शिवाला घाट की ओर बढ़ रहे थे। अचानक हरिश्चंद्र घाट की सीढ़ियों पर पहुँच कर मेरे कदम ठिठक गये। बायीं ओर अनेकों चिताये जल रही थी , उनके साथ के लोग तो उनके पास खड़े ही थे कुछ कुत्ते व बकरे भी उन चिताओं के पास खड़े होकर अपने को गरम रखने का प्रयास कर रहे थे। मेरी नजर दाहिने ओर एक शव को लेकर उतरते हुए कुछ लोगों पर पड़ी। कुछ मुठ्ठी भर लोगो के साथ शव के तीन छोरों पर ठीकठाक लोग मगर एक कोने पर एक वृद्ध शव की तिखती को थामे धीरे धीरे सीढ़ियों से उतर रहा था। मैंने देखा वह एक हाथ से तिखती को थामे दूसरे हाथ से गमछे से अपने आंसुओं को पोछ रहा था। इसी क्रम में उसका पैर इधर उधर पड़ रहा था। तभी एकाएक मुझे लगा कि वह वृद्ध अपने को संभालने में क्रमशः असहाय पा रहा था। मेरे सोचने के पूर्व ही मेरा शरीर तेजी से गतिमान हो चुका था , बिना कुछ सोचे समझे मैंने लपक कर उस वृद्ध को उसके स्थान से विस्थापित कर स्वयं उसके स्थान पर अपने को स्थापित कर शव को लेकर सीढ़ियां उतरने लगा था। शव को तिखती सहित गंगा के किनारे रख वही साथ में बैठ गया। पीछे से वह वृद्ध आकर मेरे पास बैठ गया रूंधे गले से बोला –
” बबुआ आप के हई आपके जानत नइखी, बुझात अइसने बा कि हमरे बाबू को दोस्त बानी ”
” जी ”
” केकरे घरे के बानी और कैसे बाबू पता लागल तोहे ”
” चाचा एक दोस्ते से पता लागल हमरा”
” केहिंजा घर बा ”
” नियरे के बानी चचा ”
” बाबू अब हमका लउकत कम बा न , यही से तोहरा चिन्हत नइखे” , कहते हुए उसकी आँखे सरोतर चल रही
थी।
” चचा धीरज राखी कुल ठीक होइ जाइ ” कहते मैंने उन्हें अपने अंक में भींच लिया बिना यह सोचे कि मेरे कपडे अब ख़राब हो रहे थे।
” बाबू अब का ठीक होइ एगो आंख पहिलवे ख़राब रहे, दूसर आँख ई बाबू रहे, बिना सोचे समझे चल दिये इहो जाना ख़तम होइ गयल बाबू, अब त हम अँधा न हो गयली – कैसे जीवन कटी अब……..कहते कहते उस वृद्ध का सब्र अब जवाब दे गया उसके आंसुओं ने आँखों का साथ बेपरवाही से छोड़ दिया था।
मुझ जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए स्थिति अब असह्य हो चली थी। लेकिन मुझे इस घटना का वजह भी जानना था। मैंने धैर्य रखते हुए कहा-
” अपने को सम्भालिये चचा, आखिर यह सब कैसे हो गया ”
” बाबू तोहरा नइखे पता ”
अब घबराने के बारी मेरी थी, मैंने तुरत स्वयं को संभालते हुए बोला – ” चचा मैं थोड़ा बाहर गया था, आते ही पता चला तो तुरत साथ हो लिया ”
” का बताई बाबू फलना के लड़की से कुछ रहा ओका , हम कहली कि बाबू पहिले पढाई पर ध्यान दा , कुछ बन जा त तोहार शादी वही से कर देब , चिंता जिन करा। बबुआ हमार बात मान गयल रहल, मगर केहू से पता लागल कि फलना अपने बिटियवा के शादी तय कर दिहलन। एही पाछे बड़ा परेशान रहलन अंत में बबुआ लटक के आपन जान दे दिहलन ……. कहते हुए वह वृद्ध यह कह कर फफक कर रो पड़ा –
” बाबू कभो न सोचे रहे कि अपने बाबू के कन्धा पर डाल हियन हमका लावे पड़ी। बा रे बिधाता जीवन भर मनई दूसरे क भलाई करते बीतल, ई
कइसन न्याय बा तोहार , अब हम समाज के का जवाब देब , जब सब कहिआन कि जाने कौन कर्म किया रहेन कि जवान लइका इनके सामने गुजर गवा ” इतना कहते वह एक ओर लुढ़क गया। साथ के लोग दौड़ कर पास आये मुहं पर पानी का छींटा मार उठाया और उसे किनारे बैठाया।
मेरे अंदर कुछ और सोचने समझने की क्षमता नही रही। बड़े ही उदास मन से अपने वापसी के सफर पर हो लिया। शिवाला घाट आकर हाथ मुंह धोया , अपने गमछे को गार कर घाट की मढ़ी पर फैला कर सूखने की प्रतीक्षा करते हुए शून्य में निहारते यह सोचने लगा – वाह रे समाज और समाज का डर !

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