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24 May 2024 · 7 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : पंडित राधेश्याम कथा वाचक की डायरी: अपने समय का सच
संपादक: हरिशंकर शर्मा
प्लॉट नंबर 213, 10 बी स्कीम, गोपालपुरा बायपास, निकट शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, जयपुर 302018 राजस्थान मोबाइल 946 1046594, व्हाट्सएप नंबर 8890589842 एवं 925744 6828
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, सी 46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड 22 गोदाम, जयपुर 302006
मोबाइल 9829 018087
प्रथम संस्करण: 2024
मूल्य ₹399
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समीक्षक: रवि प्रकाश पुत्र श्री राम प्रकाश सर्राफ, बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर ,उत्तर प्रदेश 244901
मोबाइल 9997615 451
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पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म बरेली (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। आपकी प्रसिद्ध का मुख्य आधार खड़ी बोली में लिखित राधेश्याम रामायण है। मात्र 17 वर्ष की आयु में आपने इसकी रचना की थी और संपूर्ण भारत में गा-गाकर सुनाई।

पहली बार पंडित राधेश्याम कथावाचक की डायरी संपादक हरिशंकर शर्मा के प्रयासों से पाठकों को उपलब्ध हो सकी है। हरिशंकर शर्मा ने न केवल डायरी पुस्तक रूप में प्रकाशित की बल्कि उसके आरंभ में नव्वे पृष्ठ का जो संपादकीय वक्तव्य लिखा है, उसके कारण डायरी की उपयोगिता भी बढ़ी है और उसको समझने में भी पाठकों को आसानी हो गई है।
पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर 1890 को तथा मृत्यु 26 अगस्त 1963 को हुई (प्रष्ठ 15 )

पंडित राधेश्याम कथावाचक अपनी डायरी-लेखन के लिए छोटी-सी गुटकानुमा डायरी का उपयोग करते थे।( प्रष्ठ 42)
ऐसी डायरी के कुछ प्रष्ठों की फोटो पुस्तक में देकर संपादक ने हमें कथावाचक जी के मानो निकट ही बैठा दिया है।

कथावाचक जी की डायरी का व्यापक आयाम चित्रित करते हुए संपादक ने अपनी टिप्पणी में लिखा है:-

राधेश्याम कथावाचक ने अपनी डायरी में समसामयिक घटनाओं, समस्याओं पर आत्मपरक दृष्टि डाली है । उन्होंने आत्मचिंतन व भोगे हुए यथार्थ को प्रस्तुत किया है। कथावाचक ने यथास्थान अत्यंत गोपनीय बातों तथा निजी अनुभवों को भी लिखा है।” ( प्रष्ठ 69 )

संपादक ने बताया है कि पंडित राधेश्याम कथावाचक ने वर्ष 1910, 1928 ,1937 ,1939, 59 तथा 1960 में वर्षपर्यंत डायरियां लिखी हैं ।(प्रष्ठ 71)

संपादक ने केवल पंडित राधेश्याम कथावाचक की डायरी का ही विश्लेषण नहीं किया है, उसने डायरी विधा के रूप में डायरी लेखन की विविध उपलब्ध पुस्तकों को भी पढ़ा है और उनसे कथावाचक जी की डायरी की तुलना भी की। कथावाचक जी की अंतिम डायरी 31 दिसंबर 1960 को प्रकाशित हुई है। (प्रष्ठ 89 )

डायरी लेखन के इतिहास का उल्लेख करते हुए संपादक हरिशंकर शर्मा ने पंडित सुंदरलाल त्रिपाठी की ‘दैनंदिनी’ को, जो 1948 में प्रकाशित हुई, प्रथम डायरी माना है।
हरिवंश राय बच्चन की डायरी ‘प्रवास’ को उद्धृत करते हुए संपादक ने लिखा है कि डायरी प्रकाशन के लिए नहीं लिखी गई। मैंने तो अपने परिवार के लिए लिखी थी। संपादक की टिप्पणी है कि शायद यही आशय कथावाचक जी की डायरी पढ़कर निकला जा सकता है।( प्रष्ठ 73)

संपादक ने पंडित राधेश्याम कथावाचक की डायरी में पाठक को अनुपस्थित माना है अर्थात उनकी डायरी में पाठक का अस्तित्व नहीं है।
डायरी-लेखन के इतिहास का विश्लेषण करते हुए संपादक ने श्री नारायण चतुर्वेदी की डायरी ‘अंतरंग’ को भी हिंदी की शुरुआती डायरियों में प्रमुख स्थान दिया है। यह 1922 का प्रकाशन है । डायरी लेखन की दृष्टि से संपादक ने महात्मा गांधी, जमनालाल बजाज, घनश्याम दास बिरला, गणेश शंकर विद्यार्थी, जय प्रकाश नारायण, चंद्रशेखर ,मोहन राकेश ,रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर आदि डायरी लेखकों का उल्लेख किया है । लेकिन डायरीनुमा लेखन को डायरी माना जाए अथवा नहीं , इस पर संपादक ने प्रश्न चिन्ह अवश्य लगाया है। उसका कथन है कि डायरी लेखन अलग चीज है और डायरी शैली में लिखना एक अलग चीज है( पृष्ठ 75, 76 )
वस्तुत: संपादक के शब्दों में डायरी लेखन एक अलग ही विधा है। संपादक का यह कहना बिल्कुल सही है कि अन्य विधाओं की कुछ समानताएं डायरी विधा में हो सकती हैं लेकिन डायरी अपने आप में एक अनोखी विधा है।( प्रष्ठ 75 )
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आइए, अब पंडित राधेश्याम कथावाचक जी के शब्दों में डायरी विधा का कुछ आनंद लिया जाए।
मोटे तौर पर कथावाचक जी ने अपनी डायरी में चार प्रकार की बातें की हैं। पहली सदुपदेश अथवा सीख देने वाली बातें। दूसरी नीति की बातेंतीसरी भावुक मन की अभिव्यक्ति और चौथी रोजमर्रा की साधारण बातें।

साधारण बातें तो ऐसी हैं कि:-

दाढ़ में दर्द रहा। डॉक्टर मदन के मशवरे से दवा ली। अभी दाढ़ निकलवाने लायक नहीं है। प्रष्ठ 93

बात छोटी सी है,लेकिन डायरी-लेखक ज्यादातर अपनी डायरी में इन्हीं छोटी-छोटी बातों को लिखते हैं।

एक बार कथावाचक जी बरेली में फिल्म देखने गए। जब फिल्म देखी तो उसके अनुभव उन्होंने अपनी डायरी में लिख लिए। एक दिन लिखते हैं :-

“‘धूल का फूल’ नामक फिल्म की तारीफ सुनी थी। उसे देखने चला गया। चोपड़ा का डायरेक्शन अच्छा था। साहिर के गीत थे। एक पसंद आया/तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा/इंसान की औलाद है इंसान बनेगा (कुमार टॉकीज में) (प्रष्ठ 228)

एक दिन फिल्म ‘मॉं के ऑंसू’ देखने गए। जब देखकर लौटे तो डायरी में लिखा:-

“कोई भी कैरेक्टर या गाना दिल में लेकर नहीं लौटा। दोबारा देखने को भी मन नहीं। (इंपिरियल सिनेमा में) पृष्ठ 229

भावुक मन कोष्ठक में भी कथावाचक जी के डायरी के कुछ प्रष्ठ उद्धृत करने योग्य हैं। एक दिन लिखते हैं:-

बाग में आज मुझे अपनी स्वर्गीय धर्मपत्नी की याद आई। मैंने इधर बाग में सफाई, पुताई, रंगाई करके नए फूल और सब्जियों से जो रौनक की है, वह होतीं तो सराहतीं। उन्हें भी बाग का शौक था। पृष्ठ 93

एक दिन लिखते हैं:-

कितने रिश्तेदार मर गए कितने मित्र मर गए। कितने रसोइए, कहार, तबलची आदि नौकर मर गए। सबके नाम और गुण लिखने बैठूॅं तो इस डायरी का एक महीना उन्हें में खत्म हो जाए। प्रष्ठ 121, 122

कुछ गहरी बातें हैं। कथावाचक जी ने अपनी डायरी में लिख लीं। यह सार्वजनिक रूप से कहने की तो नहीं होती है, लेकिन फिर भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का और उसके आंतरिक परिवेश का पता इसे चलता है। एक स्थान पर लिखा है:-

मेरा निजी खर्च ₹500 मासिक है। निजी सेवक, रसोईया, रिक्शावाला, बाग का नौकर, धोबी, नाई के अतिरिक्त दूध, फल, चाय, बर्फ, शाक, रोटी, पान, सिगरेट, तंबाकू, कागज, पेंसिल, कलम, स्याही, कपड़े आतिथ्य सभी इसमें है। हमेशा से खर्चीला जीवन रहा है। दान-पुण्य भी खूब करता रहा हूं। अब खुद के खर्चे से बचे तो दान-पुण्य करो। कई वर्ष पहले कार, सभी जायदाद बेटों पोतों के नाम कर दी। अपने लिए रॉयल्टी रखी। प्रेस की आमदनी इधर गिर जाने से उसमें भी काफी कमी आ गई। ऐसा दिन आएगा यह यदि जानता तो फैयाजी से घर वालों को सभी न देता। आज देखता हूं कि लेने को सब थे। देने को कोई नहीं। तब तो खर्च ही घटाना होगा प्रष्ठ 155

बात चाहे विचारधारा की हो अथवा नीति की, यह पंडित राधेश्याम कथावाचक जी के जीवन का यह एक अत्यंत उल्लेखनीय पृष्ठ है।

18 अगस्त 1959 ई को अपनी डायरी में लिखते हैं:-

कितने ही दिनों से मैं शाम 7:00 से 8:00 तक अपने ही कथा भवन में कथा के नाम से सत्संग करता हूं। अपनी ही रामायण का एक दो प्रष्ठ गाता भी हूं । स्वराज जब मिल रहा था तो मैंने अपनी रामायण राधेश्याम रामायण का ऐसा संशोधन कर डाला कि उसमें अरबी फारसी के सभी शब्द निकाल दिए। खड़ी बोली में हिंदी संस्कृत मिश्रित का एक काव्य सा बना दिया। इससे वह रामायण शुद्ध अवश्य हुई। पर उसमें प्रवाह की बड़ी कमी हो गई। कथावाचकों को आखिरी हजारों पत्र आ गए। तब मैंने इरादा किया इस सत्संग के बहाने गाकर फिर संशोधित करूं। सरल बनाऊं। क्योंकि यह तो गाने की चीज है। पृष्ठ 168 ,169

पुस्तक में दान के महत्व को दर्शाने वाली सुंदर विचारधारा की सुगंध भी बह रही है ( प्रष्ठ 122) तथा झूठी शान और होड़ से बचने की सीख भी दी गई है (प्रष्ठ 134) गंगा स्नान में कछुओं का वर्णन भी मिलता है (प्रष्ठ 147) नीति की बातों में किस तरह किसी को पटाकर उससे अपना काम चलाया जाता है, इसका वर्णन भी किया गया है (प्रष्ठ 120), व्यक्तियों से मुलाकात के चित्र भी डायरी में देखने को मिलते हैं (पृष्ठ 308)

अपनी डायरी में पंडित राधेश्याम कथावाचक के समय का सच ही सामने नहीं आता, उनके अपने जीवन के भुक्तभोगी यथार्थ का भी सच सामने निकल कर आ रहा है। डायरी लिखना बड़े जोखिम का काम होता है, क्योंकि उसमें व्यक्ति उन भावनाओं को लिखता है जिसे वह कम से कम अपने जीवन काल में तो प्रकाशित नहीं ही करना चाहता। डायरी में खरी-खरी बातें लिखी जाती हैं। व्यक्ति आत्मा की गहराइयों से जीवन का सच अपनी डायरी में लिखता है । जिसको जैसा देखा है, वैसा लिख देता है। जो परिदृश्य उसे पसंद आते हैं, उसकी प्रशंसा करता है। जो चीज दिल को चुभती हैं, उसकी आलोचना करने में भी उसे कोई परहेज नहीं होता। उसे न किसी से लोभ है, न किसी से भय है। डायरी में व्यक्ति पूरी पारदर्शिता के साथ खुलकर सामने आ जाता है। पंडित राधेश्याम कथावाचक जी की डायरी बताती है कि न उन्हें धन का लोभ था, न प्रसिद्धि की कामना थी। वह एक फकीर थे। ईश्वर का भजन उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था। वह अपनी ही मस्ती में जीते थे। खूब कमाते थे, खूब दान-पुण्य भी करते थे। सब के बारे में दो टूक कहने से वह नहीं चूके। डायरी विधा को अगर सौ प्रतिशत सच्चाई के साथ किसी को देखना और पढ़ना हो तो “पंडित राधेश्याम कथावाचक की डायरी: अपने समय का सच” सबसे अच्छी पुस्तक है।

कुल मिलाकर हरिशंकर शर्मा ने जो शोध प्रवृत्ति से भारी प्रयत्न करके तथा कथावाचक जी की डायरी को बहुमूल्य टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है, इसके लिए वह समस्त हिंदी जगत में तथा पंडित राधेश्याम कथावाचक के प्रशंसकों के हृदयों में अपना विशिष्ट स्थान सदैव बनाए रखेंगे।
हरिशंकर शर्मा 20 जुलाई 1953 को बरेली (उत्तर प्रदेश) में जन्मे। आपकी शिक्षा एम. ए. हिंदी-इतिहास, बी.एड. है। वर्तमान में राजस्थान जयपुर के निवासी हैं। पंडित राधेश्याम कथावाचक जी के संबंध में आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई है। आपकी शतायु की हार्दिक शुभकामनाएं।

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